महाभारत आदि पर्व अध्याय 18 श्लोक 21-39
अष्टादश (18) अध्याय: आदि पर्व (आस्तीक पर्व)
मन्दराचल ने वरूणालय (समुद्र) तथा पातालतल में निवास करने वाले नाना प्रकार के प्राणियों संहार कर डाला। जब वह पर्वत घुमाया जाने लगा, उस समय उसके शिखर से बड़े-बड़े वृक्ष आपस में टकराकर उन पर निवास करने वाले पक्षियों सहित नीचे गिर पड़े। उनकी आपस की रगड़ से बार-बार आग प्रकट होकर ज्वालाओं के साथ प्रज्वलित हो उठी और जैसे बिजली नीले मेघ को ढक ले, उसी प्रकार उसने मन्दराचल को आच्छादित कर लिया। उस दावानल ने पर्वतीय गजराजों, गुफाओं से निकले हुए सिंहों तथा अन्यान्य सहस्त्रों जन्तुओं को जलाकर भस्म कर दिया। उस पर्वत पर जो नाना प्रकार के जीव रहते थे, वे सब अपने प्राणों से हाथ धो बैठे। तब देवराज इन्द्र ने इधर-उधर सबको जलाती हुई उस आग को मेघों के द्वारा जल बरसाकर सब ओर से बुझा दिया। तदनन्तर समुद्र के जल में बड़े-बड़े वृक्षों से भाँति-भाँति के गोंद तथा ओषधियों के प्रचुर रस चू-चू कर गिरने लगे। वृक्षों और ओषधियों के अमृत तुल्य प्रभावशाली रसों के जल से तथा सुवर्णमय मन्दराचल की अनेक दिव्य प्रभावशाली मणियों से चूने वाले रस से ही देवता लोग अमरत्व को प्राप्त होने लगे। उस उत्तम रसों के सम्मिश्रण से समुद्र का सारा जल दूध बन गया और दूध से घी बनने लगा। तब देवता लोग वहाँ बैठे हुए वरदायक ब्रह्माजी से बोले-‘ब्रह्मन् ! भगवान नारायण के अतिरिक्त हम सभी देवता और दानव बहुत थक गये हैं; किन्तु अभी तक वह अमृत प्रकट नहीं हो रहा है। इधर समुद्र का मन्थन आरम्भ हुए बहुत समय बीत चुका है।'
यह सुनकर ब्रह्माजी ने भगवान नारायण से यह बात कही--‘सर्वव्यापी परमात्मन ! इन्हें बल प्रदान कीजिये, यहाँ एकमात्र आप ही सबके आश्रय हैं।' श्री विष्णु बोले—जो लोग इस कार्य में लगे हुए हैं, उन सबको मैं बल दे रहा हूँ। सब लोग पूरी शक्ति लगाकर मन्दराचल को घुमावें और इस सागर को क्षुब्ध कर दें। उग्रश्रवाजी कहते हैं—शौनकजी ! भगवान नारायण का वचन सुनकर देवताओं और दानवों का बल बढ़ गया। उन सबने मिलकर पुनः वेगपूर्वक महासागर का वह जल मथना आरम्भ किया और उस समस्त जलराशि को अत्यन्त क्षुब्ध कर डाला। फिर तो उस महासागर से अनन्त किरणों बाले सूर्य के समान तेजस्वी, शीतल प्रकाश से युक्त, श्वेत वर्ण एवं प्रसन्नात्मा चन्द्रमा प्रकट हुआ। तदनन्तर उस घृतस्वरूप जल से श्वेत वस्त्र धारिणी लक्ष्मी देवी का आविर्भाव हुआ। इसके बाद सुरादेवी और श्वेत अश्व प्रकट हुए। फिर अनन्त किरणों से समुज्ज्बल दिव्य कौस्तुभमणि का उस जल से प्रादुर्भाव हुआ, जो भगवान नारायण के वक्षस्थल पर सुशोभित हुई। ब्रह्मन ! महामुने ! वहाँ सम्पूर्ण कामनाओं का फल देने वाले पारिजात वृक्ष एवं सुरभि गौ की उत्पत्ति हुई। फिर लक्ष्मी, सुरा, चन्द्रमा तथा मन के समान वेगशाली उच्चैःश्रवा घोड़ा—ये सब सूर्य के मार्ग आकाश का आश्रय ले, जहाँ देवता रहते हैं, उस लोक में चले गये। इसके बाद दिव्य शरीरधारी धन्वन्तरि देव प्रकट हुए। वे अपने हाथ में श्वेत कलश लिये हुए थे, जिसमें अमृत भरा था। यह अत्यन्त अद्भुत दृश्य देखकर दानवों में अमृत के लिये कोलाहल मच गया। वे सब कहने लगे ‘यह मेरा है, यह मेरा है।'
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