महाभारत आदि पर्व अध्याय 22 श्लोक 1-12
द्वाविंश (22) अध्याय: आदि पर्व (आस्तीक पर्व)
उग्रश्रवाजी कहते हैं—महर्षियों ! इधर नागों ने परस्पर विचार करके यह निश्चय किया कि ‘हमें माता की आज्ञा का पालन करना चाहिये। यदि इनका मनोरथ पूरा न होगा तो वह स्नेहभाव छोड़कर रोषपूर्वक हमें जला देंगी। यदि इच्छापूर्ण हो जाने से प्रसन्न हो गयीं तो वह भामिनी हमें अपने शाप से मुक्त कर सकती हैं; इसलिये हम निश्चय ही उस घोड़े की पूँछ को काली कर देंगे। ऐसा विचार करके वे वहाँ गये और काले रंग के बाल बनकर उसकी पूँछ में लिपट गये। द्विजश्रेष्ठ ! इसी बीच में बाजी लगाकर आयी हुई दोनों सौतें और सगी बहिनें पुनः अपनी शर्त को दुहराकर बड़ी प्रसन्नता के साथ समुद्र के दूसरे पार जा पहुँची। दक्षकुमारी कद्रू और विनता आकाश मार्ग से अक्षौभ्य जलनिधि समुद्र को देखती हुई आगे बढ़ीं। वह महासागर अत्यन्त प्रबल वायु के थपेड़े खाकर साहस विक्षुब्ध हो रहा था। उससे बड़े जोर की गर्जना होती थी। तिमिंगिल औैर मगरमच्छ आदि जल- जन्तु उसमें सब ओर व्याप्त थे। नाना प्रकार के भयंकर जन्तु सहस्त्रों की संख्या में उसके भीतर निवास करते थे। इन सबके कारण वह अत्यन्त घोर और दुर्धर्ष जान पड़ता था तथा गहरा होने के साथ ही अत्यन्त भयंकर था। नदियों का वह स्वामी सब प्रकार के रत्नों की खान, वरूण का निवास स्थान तथा नागों का सुरम्य गृह था। वह पातालव्यापी बड़वानल का आश्रय, असुरों के छिपने के स्थान, भयंकर जन्तुओं का घर, अनन्त जल का भण्डार और अविनाशी था। वह शुभ्र, दिव्य, अमरों के अमृत का उत्तम उत्पत्ति स्थान, अप्रमेय, अचिन्त्य तथा परम- पवित्र जल के परिपूर्ण था। बहुत सी बड़ी-बड़ी नदियाँ सहस्त्रों की संख्या में आकर, उसमें यत्र-तत्र मिलतीं और उसे अधिकाधिक भरती रहती थीं। वह भुजाओं के समान ऊँची लहरों को ऊपर उठाये नृत्य- सा कर रहा था। इस प्रकार अत्यन्त तरल तरंगों से व्याप्त, आकाश के समान स्वच्छ, बड़वानल की शिखाओं से उद्भासित, गम्भीर, विकसित और निरन्तर गर्जन करने वाले महासागर को देखती हुई वे दोनों बहिनें तुरन्त आगे बढ़ गयीं।
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