महाभारत आदि पर्व अध्याय 30 श्लोक 17-37
त्रिंश (30) अध्याय: आदि पर्व (आस्तीक पर्व)
कश्यपजी बोले—तपोधनो ! गरूड़ का यह उद्योग प्रजा के हित के लिये हो रहा है। ये महान पराक्रम करना चाहते हैं। आप लोग इन्हें आज्ञा दें। उग्रश्रवाजी कहते हैं—भगवान कश्यप के इस प्रकार अनुरोध करने पर वे वालशिल्पमुनि उस शाखा को छोड़कर तपस्या करने के लिये परम पुण्यमय हिमालय पर चले गये। उनके चले जाने पर विनता नन्दन गरूड़ ने, जो मुँह में शाखा लिये रहने के कारण कठिनाई से बोल पाते थे, अपने पिता कश्यपजी से पूछा—‘भगवन ! इस वृक्ष की शाखा को मैं कहाँ छोड़ दूँ? आप मुझे ऐसा कोई स्थान बतावें जहाँ बहुत दूर तक मनुष्य न रहते हों। तब कश्यपजी ने उन्हें एक ऐसा पर्वत बता दिया, जो सर्वथा निर्जन था। जिसकी कन्दराएँ बर्फ से ढँकी हुई थी और जहाँ दूसरा कोई मन से भी नहीं पहुँच सकता था। उस बडे़ पेट वाले पर्वत का पता पाकर महान पक्षी गरूड़ उसको लक्ष्य करके शाखा, हाथी और कछुए सहित बड़े वेग से उड़े। गरूड़ वटवृक्ष की जिस विशा शाखाओं को चोंच में लेकर जा रहे थे, वह इतनी मोटी थी कि सौ पशुओं के चमड़ों से बनायी हुई रस्सी भी उसे लपेट नहीं सकती थी। पक्षिराज गरूड़ उसे लेकर थोड़ी ही देर में वहाँ से एक लाख योजन दूर चले आये। पिता के आदेश से क्षण भर में उस पर्वत पर पहुँच कर उन्होंने वह विशाल शाखा वहीं छोड़ दी। गिरते समय उससे बड़ा भारी शब्द हुआ। वह पर्वतराज उनके पंखों की वायु से आहत होकर काँप उठा। उस पर उगे हुए बहुतेरे वृक्ष गिर पड़े और वह फूलों की वर्षा- सी करने लगा। उस पर्वत के मणिकाञचनमय विचित्र शिखर, जो उस महान शैल की शोभा बढ़ा रहे थे, सब ओर से चूर-चूर होकर गिर पड़े। उस विशाल शाखा से टकराकर बहुत से वृक्ष भी धराशायी हो गये। वे अपने सुवर्णमय फूलों के कारण बिजली सहित मेघों की भाँति शोभा पाते थे।
सुवर्णमय पुष्प वाले वे वृक्ष धरती पर गिरकर पर्वत के गेरू आदि धातुओं से संयुक्त हो सूर्य की किरणों द्वारा रँगे हुए से सुशोभित होते थे। तदनन्तर पक्षिराज गरूड़ ने उसी पर्वत की एक चोटी पर बैठकर उन दोनों-हाथी और कछुए को खाया। इस प्रकार कछुए और हाथी दोनों को खाकर महान वेगशाली गरूड़ पर्वत की उस चोटी से ही ऊपर की ओर उड़े। उस समय देवताओं के यहाँ बहुत से भयसूचक उत्पात होने लगे। देवराज इन्द्र का प्रिय आयुध वज्र भय से जल उठा। आकाश से दिन में ही धुएँ और लपटों के साथ उल्का गिरने लगी। वसु, यद्र, आदित्य, साध्य, मरूद्रण तथा और जो-जो देवता हैं, उन सबके आयुध परस्पर इस प्रकार उपद्रव करने लगे, जैसा पहले कभी देखने में नहीं आया था। देवासुर संग्राम के समय भी ऐसी अनोहनी बात नहीं हुई थी। उस समय वज्र की गड़गड़ाहट के साथ बड़े जोर की आँधी उठने लगी। हजारों उल्काएँ गिरने लगीं। आकाश में बादल नहीं थे तो भी बड़ी भारी आवाज में विकट गर्जना होने लगी। देवताओं के भी देवता पर्जन्य रक्त की वर्षा करने लगे। देवताओं के दिव्य पुष्पहार मुरझा गये, उनके तेज नष्ट होने लगे। उत्पातकालिक बहुत से भयंकर मेघ प्रकट हो अधिक मात्रा में रूधिर की वर्षा करने लगे।
« पीछे | आगे » |