महाभारत अादि पर्व अध्याय 1 श्लोक 246-264

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प्रथम (1) अध्‍याय: आदि पर्व (अनुक्रमणिका पर्व)

महाभारत: अादि पर्व: प्रथम अध्याय: श्लोक 221-245 का हिन्दी अनुवाद

महाराज! आपने पाण्डवों के साथ निर्दयता और अपने पुत्रों के प्रति पक्षपात का जो बर्ताव किया है, वह आपको विदित ही है। इसलिये अब पुत्रों के जीवन के लिये आपको अत्यन्त व्याकुल नहीं होना चाहिये। होनहार ही ऐसी थी, इसके लिये आपको शोक नहीं करना चाहिये। भला, इस सृष्टि में ऐसा कौन- सा पुरुष है, जो अपनी बुद्धि की विशेषता से होनहार मिटा सके। अपने कर्मों का फल अवश्य ही भोगना पड़ता है - यह विधाता का विधान है। इसको कोई टाल नहीं सकता। जन्म- मृत्यु और सुख - दुख सबका मूल कारण काल ही है। काल ही प्राणियों की सृष्टि करता है और काल ही समस्त प्रजा का संहार करता है। फिर प्रजा का संहार करने वाले उस काल को महाकाल स्वरूप परमात्मा ही शान्त करता है।सम्पूर्ण लोकों में यह काल ही शुभ-अशुभ सब पदार्थो का कर्ता है। काल ही सम्पूर्ण प्रजा का संहार करता है और वही पुनः सबकी सृष्टि भी करता है। जब सुषुप्ति अवस्था में सब इन्द्रियाँ और मनावृत्तियाँ लीन हो जाती हैं, तब भी यह काल जागता रहता है। काल की गति का कोई उल्लंघन नहीं कर सकता वह सम्पूर्ण प्राणियों में समान रूप से बेरोक-टोक अपनी क्रिया करता रहता है। इस सृष्टि में जितने पदार्थ हो चुके, भविष्य में होंगे और इस समय वर्तमान में हैं, वे सब काल की रचना हैं; ऐसा समझकर आपको अपने विवेक का परित्याग नहीं करना चाहिये। उग्रश्रवा जी कहते हैं- सूतवंशी संजय ने यह सब कहकर पुत्र शोक से व्याकुल नरपति धृतराष्ट्र को समझाया-बुझाया और उन्हें स्वस्थ किया। इसी इतिहास के आधार पर श्रीकृष्ण द्वैपायन ने इस परम पुण्यमयी उपनिषद रूप महाभारत का (शोकातुर प्राणियों का शोक नाश करने के लिये) निरूपण किया। विद्वजन लोक में और श्रेष्ठतम कवि पुराणों में सदा से इसी का वर्णन करते आये हैं। महाभारत का अध्ययन अन्तःकरण को शुद्ध करने वाला है। जो कोई श्रद्धा के साथ इसके किसी एक श्लोक के एक पाद का भी अध्ययन करता है, उसके सब पाप सम्पूर्ण रूप से मिट जाते है। इस ग्रन्थ रत्न में शुभ कर्म करने वाले देवता, देवर्षि, निर्मल ब्रह्मर्षि, यक्ष और महानागों का वर्णन किया गया है। इस ग्रन्थ के मुख्य विषय हैं स्वयं सनातन पर ब्रह्मस्वरूप वासुदेव भगवान श्रीकृष्ण। उन्हीं का इसमें संकीर्तन किया गया है। वे ही सत्य, ऋत, पवित्र एवं पुण्य हैं। वे ही शाश्वत परंब्रह्मर हैं और वे ही अविनाशी सनातन ज्येाति हैं। मनीषी पुरुष उन्हीं की दिव्य लीलाओं संकीर्तन किया करते हैं। उन्हीं से असत, सत तथा दसत-उभय रूप सम्पूर्ण विश्व उत्पन्न होता है। उन्हीं से संतति (प्रजा), प्रवृत्ति (कर्तव्य कर्म), जन्म- मृत्यु तथा पुर्नजन्म होते हैं। इस महाभारत में जीवात्मा का स्वरूप भी बतलाया गया है एवं जो सत्य रज-तम इन तीनों गुणों के कार्यरूप पाँच महाभूत हैं, उनका तथा जो अव्यक्त प्रकृति आदि के मूल कारण परम ब्रह्म परमात्मा हैं, उनका भी भलि - भाँति निरूपण किया गया है। जो इस अनुक्रमणिका अध्याय का कुछ अंश भी प्रातः, सांय अथवा मध्याह्न में जपता है, वह दिन अथवा रात्रि के समय संचित सम्पूर्ण पाप राशि से तत्काल मुक्त हो जाता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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