महाभारत आश्रमवासिक पर्व अध्याय 19 श्लोक 1-18

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एकोनविंश(19) अध्याय: आश्रमवासिक पर्व (आश्रमवास पर्व)

महाभारत: आश्रमवासिक पर्व: एकोनविंश अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद

धृतराष्ट्र आदि का गंगा तट पर निवास करके वहाँ से कुरूक्षेत्र में जाना और शतयूप के आश्रम पर निवास करना

वैशम्पायन जी कहते हैं - जनमेजय ! तदनन्तर दूसरा दिन व्यतीत होने पर राजा धृतराष्ट्र ने विदुर जी की बात मानकर पुण्यात्मा पुरूषों के रहने योग्य भागीरथी के पावन तट पर निवास किया। भरतश्रेष्ठ ! वहाँ वनवासी ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र बहुत बड़ी संख्या में एकत्र होकर राजा से मिलने को आये। उन सबसे घिरे हुए राजा धृतराष्ट्र ने अनेक प्रकार की बातें करके सबको प्रसन्न किया और शिष्यों सहित ब्राह्मणों का विधिपूर्वक पूजन करके उन्हें जाने की अनुमति दी। तत्पश्चात् सांयकाल में राजा तथा यशस्विनी गान्धारी देवी ने गंगा जी के जल में प्रवेश करके विधिपूर्वक स्नान कार्य सम्पन्न किया। भरतनन्दन ! वे तथा विदुर आदि पुरूष वर्ग के लोग सबने पृथक्-पृथक् घाटों में गोता लगाकर संध्योपासन आदि समस्त शुभ कार्य पूर्ण किये। राजन् ! स्नानादि कर लेने के पश्चात् अपने बूढ़े श्वसुर धृतराष्ट्र और गान्धारी देवी को कुन्ती देवी गंगा के किनारे ले आयीं। वहाँ यज्ञ कराने वाले ब्राह्मणों ने राजा के लिये एक वेदी तैयार की, जिस पर अग्नि स्थापना करके उस सत्यप्रतिज्ञ नरेश ने विधिवत् अग्निहोत्र किया। इस प्रकार नित्यकर्म से निवृत्त हो बूढे़ राजा धृतराष्ट्र इन्द्रिय संयमपूर्वक नियम परायण हो सेवकों सहित गंगा तट से चलकर कुरूक्षेत्र में जा पहुँचे। वहाँ बुद्धिमान भूपाल एक आश्रम पर जाकर वहाँ के मनीषी राजर्षि शतयूप से मिले। वे परंतप राजा शतयूप कभी केकय देश के महाराज थे । अपने पुत्र को राजसिंहासन पर बिठाकर वन में चले आये थे। राजा धृतराष्ट्र उन्हें साथ लेकर व्यास आश्रम पर गये । वहाँ कुरूश्रेष्ठ राजा धृतराष्ट्र ने विधिपूर्वक व्यास जी की पूजा की। तत्पश्चात् उन्हीं से वनवास की दीक्षा लेकर कौरवनन्दन राजा धृतराष्ट्र पूर्वोक्त शतयूप के आश्रम में लौट आये और वहीं निवास करने लगे। महाराज ! वहाँ परम बुद्धिमान राजा शतयूप ने व्यास जी की आज्ञा से धृतराष्ट्र को वन में रहने की सम्पूर्ण विधि बतला दी। राजन् ! इस प्रकार महामनस्वी राजा धृतराष्ट्र ने अपने आपको तथा साथ आये हुए लोगों को भी तपस्या में लगा दिया। महाराज ! इसी प्रकार वल्कल और मृगचर्म धारण करने वाली गान्धारी देवी भी कुन्ती के साथ रहकर धृतराष्ट्र के समान ही व्रत का पालन करने लगीं। नरेश्वर ! वे दोनों नारियाँ इन्द्रियों को अपने अधीन करके मन, वाणी, कर्म तथा नेत्रों के द्वारा भी उत्तम तपस्या में संलग्न हो गयीं। राजा धृतराष्ट्र के शरीर का मांस सूख गया। वे अस्थिचर्मावशिष्ट होकर मस्तक पर जटा और शरीर पर मृगछाला एवं वल्कल धारण किये महर्षियों की भाँति तीव्र तपस्या में प्रवृत्त हो गये । उनके चित्त का सम्पूर्ण मोह दूर हो गया था। धर्म और अर्थ के ज्ञाता तथा उत्तम बुद्धिवाले विदुर जी भी संजय सहित वल्कल और चीरवस्त्र धारण किये गान्धारी और धृतराष्ट्र की सेवा करने लगे । वे मन को वश में करके अपने दुर्बल शरीर से घोर तपस्या में संलग्न रहते थे।

इस प्रकार श्रीमहाभारत आश्रमवासिक पर्व के अन्तर्गत आश्रमवास पर्व में धृतराष्ट्र का शतयूप के आश्रम पर निवास विषयक उन्नीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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