महाभारत स्‍त्री पर्व अध्याय 15 श्लोक 1-18

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पत्र्चदश (15) अध्याय: स्‍त्रीपर्व (जलप्रदानिक पर्व )

महाभारत: स्‍त्रीपर्व: पत्र्चदश अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद

भीमसेनका गान्‍धारीको अपनी सफाई देते हुए उनसे क्षमा मॉंगना, युधिष्ठिरका अपना अपराध स्‍वीकार करना, गान्‍धारी के दृष्टिपातसे युधिष्ठिरके पैरोंके नखोंका काला पड़ जाना, अर्जुनका भयभीत होकर श्रीकृष्‍णके पीछे छिप जाना, पाण्‍डवोंका अपनी मातासे मिलना, द्रौपदीका विलाप, कुन्‍तीका आश्‍वासन तथा गान्‍धारीका उन दोनोंको धीरज बँधाना

वैशम्‍पायन उवाच वैशम्‍पायनजी कहते हैं-जनमेजय ! गान्‍धारीकी यह बात सुनकर भीमसेननें डरे हुएकी भॉंति विनयपूर्वक उनकी बातका उत्तर देते हुए कहा । ‘माताजी ! यह अधर्म हो या धर्म; मैंने दुर्योधनसे डरकर अपने प्राण बचानेके लिये ही वहॉं ऐसा किया था; अत: आप मेरे उस अपराधको क्षमा कर दें । ‘आपकेउस महाबली पुत्रको कोई भी धर्मानुकूल युद्ध करके मारनेका साहस नहीं कर सकता था; अत: मैंने विषमतापूर्ण बर्ताव किया । ‘पहले उसने भी अधर्मसे ही राजा युघिष्ठिरको जीता था और हमलोगोंके साथ सदा धोखा किया था, इसलिये मैंने भी उसके साथ विषम बर्ताव किया ।‘कौरवसेनाका एकमात्र बचा हुआ यह पराक्रमी वीर गदायुद्धके द्वारा मुझे मारकर पुन: सारा राज्‍य हर न ले, इसी आशड्का़से मैंने वह अयोग्‍य बर्ताव किया था । ‘राजकुमारी द्रौपदीसे, जो एक वस्‍त्र धारण किये रजस्‍वला अवस्‍थामें थी, आपके पुत्रने जो कुछ कहा था, वह सब आप जानती हैं । ‘दुर्योधनका संहार किये बिना हमलोग निष्‍कण्‍टक प्रथ्‍वीका राज्‍य नहीं भोग सकते थे, इसलिये मैंने यह अयोग्‍य कार्य किया । ‘आपकेपुत्रने तो हम सब लोगोंका इससे भी बढ़कर अप्रिय कि‍या था कि उसने भरी सभामें द्रौपदीको अपनी बॉंयी जॉंघ दिखायी । ‘आपके उस दुराचारी पुत्रको तो हमें उसी समय मार डालना चाहिये था; परंतु धर्मराजकी आज्ञासे हमलोग समयके बन्‍धनमें बँधकर चुप रह गये । ‘रानी ! आपके पुत्रने उस महान् वैरकी आगको और भी प्रज्‍वलित कर दिया और हमें वनमें भेजकर सदा क्‍लेश पहुँचाया; इसीलिये हमने उसके साथ ऐसा व्‍यवहार किया है । ‘रणभूमिमें दुर्योधनका वध करके हमलोग इस वैरसे पार हो गये । राजा युधिष्ठिरको राज्‍य मिल गया और हमलोगोंका क्रोध शान्‍त हो गया’ । गान्धार्युवाच गान्‍धारी बोलीं –तात ! तुम मेरे पुत्रकी इतनी प्रशंसा कर रहे हो;इसलिये यह उसका वध नहीं हुआ (वह अपने यशोमय शरीरसे अमर है) और मेरे सामने तुम जो कुछ कह रहे हो, वह सारा अपराध दुर्योधनने अवश्‍य किया है । भारत ! परंतु वृषसेनने जब नकुलके घोड़ोको मारकर उसे रथहीन कर दिया था, उस समय तुमने युद्धमें दु:शासन-को मारकर जो उसका खून पी लिया, वह सत्‍पुरुषोंद्वारा निन्दित और नीच पुरुषोंद्वारा सेवित घोर क्रूरतापूर्ण कर्म है । वृकोदर ! तुमने वही क्रूर कार्य किया है, इसलिये तुम्‍हारे द्वारा सत्‍यन्‍त अयोग्‍य कर्म बन गया है । भीमसेन उवाच भीमसेन बोले—माताजी ! दूसरेका भी खून नहीं पीना चाहिये; फिर अपनाही खून कोई कैसे पी सकता है ? जैसे अपना शरीर है, वैसे ही भाईका शरीर है ।अपनेमें और भाईमें कोई अन्‍तर नहीं है । मॉं ! आप शोक न करें । वह खून मेरे दॉंतो और ओठोंको लॉंघकर आगे नहीं जा सका था । इस बातको सूर्य-पुत्र यमराज जानते हैं कि केवल मेरे दोनों हाथ ही रक्‍तमें सने हुए थे । युद्धमें वृषसेनके द्वारा नकुलके घोड़ोको मारा गया देख जो दु:शासनके सभी भाई हर्षसे उल्‍लसित हो उठे थे, उनके मनमें वैसा करके मैंने केवल त्रास उत्‍पन्न किया था । द्यतक्रीडाके समय जब द्रौपदी का केश खींचा गया, उस समय क्रोधमें भरकर मैंने जो प्रतिज्ञा की थी, उसकी याद हमारे ह्रदयमें बराबर बनी रहती थी ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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