महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 43 श्लोक 1-9

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त्रिचत्वारिंश (43) अध्याय: कर्ण पर्व

महाभारत: कर्ण पर्व: त्रिचत्वारिंश अध्याय: श्लोक 1-9 का हिन्दी अनुवाद

कर्ण का आत्मप्रशंसा पूर्वक शल्य को फटकारना

संजय कहते हैं-महाराज ! तदनन्तर शत्रुओं का दमन करने वाले राधापुत्र कर्ण ने शल्य को रोककर पुनः उनसे इस प्रकार कहा-। शल्य तुमने दृष्टान्त के लिये मेरे प्रति जो वाग्जाल फैलाया है,उसके उत्तर में निवेदन है कि तुम इस युद्धस्थल में मुझे अपनी बातों से नहीं डरा सकते। यदि इन्द्र सहित सम्पूर्ण देवता मुझसे युद्ध करने लगें तो भी मुझे उनसे कोई भय नहीं होगा। फिर श्रीकृष्ण सहित अर्जुन से क्या भय हो सकता है ? मुझे केवल बातों से किसी प्रकार भी डराया नहीं जा सकता,जिसे तुम रणभूमि में डरा सको,ऐसे किसी दूसरे ही पुरुष का पता लगाओ। तुमने मेरे प्रति जो कटु वचन कहै हैं,इनता ही नीच पुरुष का बल है। दुर्बुद्धि ! तुम मेरे गुणों का वर्णन करने में असमर्थ होकर बहुत-सी ऊटपटांग बातें बकते जा रहे हो। मद्रनिवासी शल्य ! कर्ण इस संसार में भयभीत होने के लिये पैदा नहीं हुआ है। मैं तो पराक्रम प्रकट करने और अपने यश को फैलाने के लिये ही उत्पन्न हुआ हूँ। शल्य ! एक तो तुम सारथि बन कर मेरे सखा हो गये हो,दूसरे र्साहार्दवश मैंने तुम्हें क्षमा कर दिया है और तीसरे मित्र दुर्योधन की अभीष्ट सिद्धि का मेरे मन में विचार है-इन्हीं तीन कारणों से तुम अब तक जीवित हो। राजा दुर्योधन का महान् कार्य उपस्थित हुआ है और उसका सारा भार मुझपर रक्खा गया है। शल्य ! इसीलिये तुम क्षण भर भी जीवित हो। इसके सिवा,मैंने पहले ही यह शर्त कर दी है कि तुम्हारे अप्रिय वचनों को क्षमा करूँगा। वैसे तो हजारों शल्य न रहैं तो भी शत्रुओं पर विजय पा सकता हूँ;परंतु मित्रद्रोह महान् पाप है,इसी लिये तुम अब तक जीवित हो।

इस प्रकार श्रीमहाभारत में कर्णपर्व में कर्ण और शल्य का संवाद विषयक तैंतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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