महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 55 श्लोक 13-29

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पंचपंचाशत्तम (55) अध्‍याय: आश्वमेधिक पर्व (अनुगीता पर्व)

महाभारत: आश्वमेधिक पर्व: पंचपंचाशत्तम अध्याय: श्लोक 13-29 का हिन्दी अनुवाद

उत्तंक बोले- प्रभो! यदि वर माँगना आप मेरे लिये आवश्यक कर्तव्य मानते हैं तो मैं यही चाहता हूँ कि मुझे यहाँ यथेष्ट जल प्राप्त हो, क्योंकि इस मरूभूमि में जल बड़ा ही दुर्लभ है। तब भगवान ने अपने उस तेजोमय स्वरूप को समेटकर उत्तंक मुनि से कहा- ‘मुने! जब आपको जल की इच्छा हो, तब आप मेरा स्मरण कीजियेगा।’ ऐसा कहरक वे द्वारका चले गये। तत्पश्चात् एक दिन उत्तंक मुनि को बड़ी प्यास लगी। वे पानी की इच्छा से उस मरूभूमि में चारों ओर घूने लगे। घूमते-घूमते उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण का स्मरण किया। इतनेही में उन बुद्धिमान मुनि को उस मरुप्रदेश में कुत्तों के झुंड से घिरा हुआ एक नंग-धडं¸ग चाण्डाल दिखायी पड़ा, जिसके शररी में मैल और कीचड़ जमी हुई थी। वह देखने में बड़ा भयंकर था। उसने कमर में तलवार बाँध रखी थी और हाथों में धनुष बाण धारण किये थे। द्विजरेष्ठ उत्तंक ने देखा- उसके नीचे पैरों के समीप एक छिद्र से प्रचुर जल की धारा गिर रही है। मुनि को पहचानते ही वह जोर-जोर से हँसता हुआ सा बोला- ‘भृगकुलतिलक उत्तंक! आओ, मुझ से जल गेहण करो। तुम्हें प्यास से पीड़ित देेखकर मुझे तुम पर बड़ी दया आ रही है।’ चाण्डाल के ऐसा कहने पर भी मुनि ने उसके जल का अभिनन्दन नहीं किया- उसे लेने से इंकार कर दिया। उस मसय बुद्धिमान उत्तंक ने अपने कठारे वचनों द्वारा भगवान श्रीकृष्ण पर भी आक्षेप किया। उधर चाण्डाल बारंबार आग्रह करने लगा- ‘महर्षे! जल पी लीजिये’। उत्तंक ने उस जल को नहीं पीया। वे अत्यन्त कुपित हो उठे थे। उनके अन्त:करण में बड़ा क्षोम था। उन महात्मा ने अपने निश्चय पर अटल रहकर चाण्डाल को जवाब दे दिया। महाराज! मुनि के इनकार करते ही कुत्तों सहित वह चाण्डाल वहीं अन्तर्धान हो गया। यह देख उत्तंक मन ही मन बहुत लज्जित हुए और सोचने लगे कि ‘शत्रुघाती श्रीकृष्ण ने मुझे ठग लिया’। तदनन्तर शंख, चक्र और गदा धारण करने वाले भगवान श्रीकृष्ण उसी मार्ग से प्रकट होकर आये। उन्हें देखकर महामति उत्तंक ने कहा- ‘पुरुषोत्तम! प्रभो! आपको श्रेष्ठ ब्राह्मणों के लिये चाण्डाल से स्पर्श किया हुआ वैसा अपवित्र जल देना उचित नही है’। उत्तंक के ऐसा कहने पर महाबुद्धिमान जनार्दन ने उन्हें मधुर वाणी द्वारा सान्त्वना देते हुए कहा- ‘महर्षे! वहाँ जैसा रूप धारण करके वह जल आपके लिये देना उचित था, उसी रूप से दिया गया, किंतु आप उसे समझ न सके। ‘भृगुनन्दन! मैंने आपके लिये व्रजधारी इन्द्र से जाकर कहा था कि तुम उत्तंक मुनि को जल के रूप में अमृत प्रदान करो। मेरी बात सुनकर प्रभावशाली देवेन्द्र ने बारम्बार मुझ से कहा कि ‘मनुष्य अमर नहीं हो सकता। इसलिये आप उन्हें अमृत न देकर और कोई वर दीजिये।’ परंतु मैंने शचीपति इन्द्र से जोर देकर कहा कि उत्तंक को अमृत ही देना है।




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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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