महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 61 श्लोक 18-36

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ:नेविगेशन, खोजें

एकषष्टितम (61) अध्‍याय: आश्वमेधिक पर्व (अनुगीता पर्व)

महाभारत: आश्वमेधिक पर्व: एकषष्टितम अध्याय: श्लोक 18-36 का हिन्दी अनुवाद

‘प्रभो! यदि निरन्तर उसे एक-एक वीर के साथ ही युद्ध करना पड़ता तो रणभूमि में वज्रधारी इन्द्र भी उसे नहीं मार सकते थे (परन्तु वहाँ तो बात ही दूसरी हो गयी)। ‘अर्जुन संशप्तकों के साथ युद्ध करते हुए संग्राम भूमि से बहुत दूर हट गये थे। इस अवसर से लाभ उठाकर क्रोध में भरे हुए द्रोणाचार्य आदि कई वीरों ने मिलकर उस बालक को चारों ओर से घेर लिया। ‘वृष्णिकुल भूषण पिताजी! तो भी शत्रुओं का बड़ा भारी संहार करके आपका वह दौहित्र युद्ध में दु:शासन कुमार के अधीन हुआ। ‘महामते! अभिमन्यु निश्चय ही स्वर्गलोक में गया है; अत: आप उसके लिये शोक न कीजिये। पवित्र बुद्धिवाले साधु पुरुष संकट में पड़ने पर भी इतने खिन्न नहीं होते हैं। ‘जिसने इन्द्र के समान पराक्रमी द्रोण, कर्ण आदि वीरों का युद्ध में डटकर सामना किया है, उसे स्वर्ग की प्राप्ति कैसे नहीं होगी? ‘दुर्धर्ष वीर पिताजी! इसलिये आप शोक त्याग दीजिये। शोक के वशीभूत न होइये। शत्रुओं के नगर पर विजय पाने वाला वीरवर अभिमन्यु शस्त्राघात से पवित्र हो उत्तम गति को प्राप्त हुआ है। ‘उस वीर के मारे जाने पर मेरी यह बहन सुभद्रा दु:ख से आतुर हो पुत्र के पास जाकर कुररी की भाँति विलाप करने लगी और द्रौपदी के पास जाकर दु:खमग्न हो पूछने लगी- आर्ये! सब बच्चे कहाँ हैं? मैं उन सबको देखना चाहती हूँ। ‘इसकी बात सुनकर कुरुकुल की सारी स्त्रियाँ इसे दोनों हाथों से पकड़कर अत्यन्त आर्त-सी होकर करुण विलाप करने लगी। ‘सुभद्रा ने उत्तरा से भी पूछा- ‘भद्रे! तुम्हारा पति वह अभिमन्यु कहाँ चला गया? तुम शीघ्र उसे मेरे आगमन की सूचना दो। ‘विराटकुमारी! जो सदा मेरी आवाज सुनकर शीघ्र घर से निकल पड़ता था, वही तुम्हारा पति आज मेरे पास क्यों नहीं आता है? ‘अभिमन्यो! तुम्हारे सभी महारथी मामा सकुशल है और युद्ध की इच्छा से यहाँ आये हुए तुमसे उन सबने तुम्हारा कुशल समाचार पूछा है। ‘शत्रुदमन! पहले की भाँति आज भी तुम मुझे युद्ध की बात बताओ। मैं इस प्रकार विलाप करती हूँ तो भी आज यहाँ तुम मुझसे बात क्यों नहीं करते हो? ‘सुभद्रा का इस प्रकार विलाप सुनकर अत्यन्त दु:ख से आतुर हुई बुआ कुन्ती ने शनै:-शनै: उसे समझाते हुए कहा- ‘सुभद्रे! वासुदेव, सात्यकि और पिता अर्जुन- तीनों जिसका बहुत लाड-प्यार करते थे, वह बालक अभिमन्यु कामधर्म से मारा गया है (उसकी आयु पूरी हो गयी, इसलिये मृत्यु के अधीन हुआ है)। ‘यदुनन्दिनी! मृत्युलोक में जन्म लेने वाले मनुष्यों का धर्म ही ऐसा है- उन्हें एक-न-एक दिन मृत्यु के वश में होना ही पड़ता है, इसलिये शोक न करो। तुम्हारा दुर्जय पुत्र परम गति को प्राप्त हुआ है। ‘बेटी! कमलदललोचने! तुम महात्मा क्षत्रियों के महान् कुल में उत्पन्न हुई हो, अत: तुम अपने चंचल नेत्रों वाले पुत्र के लिये शोक न करो। ‘शुभे! तुम्हारी बहु उत्तरा गर्भवती है, तुम उसी की ओर देखो, शोक न करो। वह भाविनी उत्तरा शीघ्र ही अभिमन्यु के पुत्र को जन्म देगी।



« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख