महाभारत सभा पर्व अध्याय 4 श्लोक 1-19

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
बंटी कुमार (वार्ता | योगदान) द्वारा परिवर्तित 06:53, 26 अगस्त 2015 का अवतरण ('==चतुर्थ (4) अध्‍याय: सभा पर्व (सभाक्रिया पर्व)== <div style="text-alig...' के साथ नया पन्ना बनाया)
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ:नेविगेशन, खोजें

चतुर्थ (4) अध्‍याय: सभा पर्व (सभाक्रिया पर्व)

महाभारत: सभा पर्व: चतुर्थ अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद

मया द्वारा निर्मित सभा भवन में धर्मराज युधिष्ठिर का प्रवेश तथा सभा में स्थित महर्षियों और राजाओं आदि का वर्णन

वैशम्पायन जी कहते हैं - जनमेजय ! उस श्रेष्ठ सभा भवन का निर्माण करके मयासुर ने अर्जुन से कहा -। मयासुर बोला - सव्यसाचिन् ! यह है आपकी सभा, इसमें एक ध्वजा होगी। उसके अग्रभाग में भूतों का महापराक्रमी किंकर नामक गण निवास करेगा। जिस समय तुम्हारे धनुष की टंकार ध्वनि होगी, उस समय उस ध्वनि के साथ ये भूत भी मेघों के समान गर्जना करेंगे। यह जो सूर्य के समान तेजस्वी अग्निदेव का उत्तम रथ है और ये जो श्वेत वर्ण वाले दिव्य एवं बलवान् अश्वरत्न हैं तथा यह जो वानरचिन्ह से उपलक्षित ध्वज है, इन सबका निर्माण माया से ही हुआ है। यह ध्वज वृक्षों में कहीं अटकता नहीं हैं तथा अग्नि की लपटों के समान सदा ऊपर की ओर ही उठा रहता है। आपका यह वानरचिन्हित ध्वज अनेक रंग का दिखायी देता है। आप युद्ध में उत्कट एवं स्थिर ध्वज को कभी झुकता नहीं देखेंगे। ऐसा कहकर मयासुर ने अर्जुन को हृदय से लगा लिया और उनसे विदा लेकर (अभीष्ट स्थान को) चला गया।
वैशम्पायन जी कहते हैं - जनमेजय ! तदनन्तर राजा युधिष्ठिर ने घी और मधु मिलायी हुई खीर, खिचड़ी, जीवन्तिका के साग, सब प्रकार के हविष्य, भाँति भाँति के भक्ष्य तथा फल, ईख आदि नाना प्रकार के चोष्य और बहुत अधिक पेय (शर्बत) आदि सामग्रियों द्वारा दस हजार ब्राह्मणें को भोजन कराकर उस सभाभवन में प्रवेश किया। उन्होनें नये-नये वस्त्र और छोटे-बडे़ अनेक प्रकार के हार आदि के उपहार देकर अनेक दिशाओं से आये हुए श्रेष्ठ ब्राह्मणों को तृप्त किया। भारत ! तत्पश्चात् उन्होनें प्रत्येक ब्राह्मण को एक-एक हजार गौएँ दी। उस समय वहाँ ब्राह्मणों के पुण्याहवाचन का गम्भीर घोष मानो स्वर्गलोक तक गूँज उठा। कुरूश्रेष्ठ युधिष्ठिर ने अनेक प्रकार के बाजे तथा भाँति भाँति के दिव्य सुगन्धित पदार्थों द्वारा उस भवन में देवताओं की स्थापना एवं पूजा की। इसके बाद वे उस भवन में प्रविष्ट हुए। वहाँ धर्मपुत्र महात्मा युधिष्ठिर की सेवा में कितने ही मल्ल (बाहुयुद्ध करने वाले), नट, झल्ल (लकुटियों से युद्ध करने वाले), सूत और वैतालिक उपस्थित हुए।
इस प्रकार पूजन का कार्य सम्पन्न करके भाइयों सहित पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर स्वर्ग में इन्द्र की भाँति उस रमणीय सभा में आनन्दपूर्वक रहने लगे। उस सभा में ऋषि तथा विभिन्न देशों से आये हुए नरेश पाण्डवों के साथ बैठा करते थे। असित, देवल, सत्य, सर्पिमाली, महाशिरा, अर्वावसु, सुमित्र, मैत्रेय, शुनक, बलि, बक, दाल्भ्य, स्थूलशिरा, कृष्ण द्वैपायन, शुकदेव, व्यास जी के शिष्य सुमन्तु, जैमिनी, पैल तथा हमलोग, तित्तिर, याज्ञवल्क्य, पुत्र सहित लोमहर्षण, अप्सुहोम्य, धौम्य, अणीमाण्डव्य, कौशिक, दामोष्णीय, त्रैंबलि, पर्णाद, धटजानुक, मौञ्जायन, वायुभक्ष, पाराशर्य, सारिक, बलिवाक, सिनीवाक, सत्यपाल, कृतश्रम, जातूकर्ण, शिखावान्, आलम्ब, पारिजातक, महाभाग पर्वत, महामुनि मार्कण्डेय, पवित्रपाणि, सावर्ण, भालुकि, गालव, जंघाबन्धु, रैभ्य, कोपवेग, भृगु, हरिबभ्रु, कौण्डित्य, बभुमाली, सनातन, काक्षीवान्, औशिज, नाचिकेत, गौतम, पैंगय, वराह, शुनक (द्वितिय), महातपस्वी शाणिडल्य, कुक्कुर, वेणुजंघ, कालाप तथा कट आदि धर्मज्ञ, जितात्मा और जितेन्द्रिय मुनि उस सभा में विराजते थे। ये तथा और भी वेद-वेदांगों के पारंगत बहुत से मुनि श्रेष्ठ उस सभा में महात्मा युधिष्ठिर के पास बैठा करते थे।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख