महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 15 श्लोक 18-34

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
व्यवस्थापन (वार्ता | योगदान) द्वारा परिवर्तित 07:33, 3 जनवरी 2016 का अवतरण (Text replacement - "पुरूष" to "पुरुष")
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ:नेविगेशन, खोजें

पञ्चदश (15) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: पञ्चदश अध्याय: श्लोक 18-34 का हिन्दी अनुवाद

पंरतु ब्राह्म, धाता और पूषा की कोई किसी तरह भी पूजा अर्चा नहीं करते हैं; क्यों कि वे सम्पूर्ण प्राणियेां के प्रति समभाव रखने के कारण मध्यस्थ, जितेन्द्रिय, एवं शान्ति परायण हैं। जो शान्त स्वभाव के मनुष्य हैं, वे ही समस्त कर्मां में इन धाता आदिकी पूजा करते हैं। संसार में किसी भी ऐसे पुरुष को मैं नहीं देखता, जो अहिंसा से जीविका चलाता हो; क्योंकि प्रबल जीव दुर्बल जीवों द्वारा जीवन-निर्वाह करते हैं। राजन्! नेवला चूहे को खा जाता है और नेवले को विलाव, विलाव को कुत्ता, और कुत्ते को चीता चबा जाता है। परंतु इन सबको मनुष्य मारकर खा जाता है। देखो, कैसा काल आ गया है? यह सम्पूर्ण चराचर जगत् प्राण का अन्न है। यह सब दैवका विधान है। इसमें विद्वान् पुरुष को मोह नहीं होता है। राजेन्द्र! आपको विधाता ने जैसा बनाया है, (जिस जाति और कुल में आपको जन्म दिया है) वैसा ही आपको होना चाहिये। जिनमें क्रोध और हर्ष दोनों ही नहीं रह गये हैं, ये मन्दबुद्धि क्षत्रिय बनमं जाकर तपस्वी बन जाते हैं, परंतु बिना हिंसा किये वे भी जीवन निर्वाह नहीं कर पाते हैं।

जल में बहुतेरे जीव हैं, पृथ्वी पर तथा वृक्ष के फलों में भी बहुत-से कीड़े होते हैं। कोई भी ऐसा मनुष्य नहीं है, जो इनमें से किसी को कभी न मारता हो। यह सब जीवन-निर्वाह के सिवा और क्या है? कितने ही ऐसे सूक्ष्य योनि के जीव है, जो अनुमान से ही जाने जाते हैं। मनुष्य की पलकों के गिरने मात्र से जिनके कंधे टूट जाते हैं (ऐसे जीवों की हिंसा से कोई कहा तक बच सकता है?)। कितने ही मुनि क्रोध और ईष्र्या से रहित हो गाव से निकलकर बन में चले जाते हैं और वहीं मोहवश गृहस्थ धर्म में अनुरक्त दिखायी देते हैं। मनुष्य धरती को खोदकर तथा ओषधियों; वृक्षों, लताओं, पक्षियेां और पशुओं का उच्छेद करके यज्ञ का अनुष्ठान करते हैं और वे स्वर्ग में भी चले जाते हैं। कुन्तीनन्दन! दण्डनीतिका ठीक-ठीक प्रयोग होने पर समस्त प्राणियों के सभी कार्य अच्छी तरह सिद्ध होते हैं, इसमें मुझे संशय नहीं है। यदि संसार में दण्ड न रहे तो यह सारी प्रजा नष्ट हो जाय और जैसे जल में बडे मत्स्य छोटी मछलियों को खा जाते हैं, उसी प्रकार प्रबल जीव दुर्बल जीवों को अपना आहार बना लें। ब्राह्म जी ने पहले ही इस सत्य को बता दिया है कि अच्छी तरह प्रयोग में लाया हुआ दण्ड प्रजाजनों की रक्षा करता है। देखो, जब आग बुझने लगती है, तब वह फूककी फटकार पड़ने पर डर जाती और दण्ड के भय से फिर प्रज्वलित हो उठती है। यदि संसार में भले-बुरे का विभाग करने वाला दण्ड न हो तो सब जगह अंधेर मच जाय और किसी को कुछ सूझ न पडे़। जो धर्म की मर्यादा नष्ट करके वेदों की निन्दा करने वाले नास्तिक मनुष्य हैं, वे भी डंडे पड़ने पर उससे पीड़ित हो शीघ्र ही रह पर आ जाते हैं- मर्याद-पालन के लिये तैयार हो जाते हैं। सारा जगत् दण्ड से विवश हेाकर ही रास्ते पर रहता है; क्यों कि स्वभावतः सर्वथा शुद्ध मनुष्य मिलना कठिन है। दण्ड के भय से डरा हुआ मनुष्य ही मर्यादा-पालन में प्रवृत्त होता है।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख