महाभारत अादि पर्व अध्याय 1 श्लोक 28-42
प्रथम (1) अध्याय: आदि पर्व (अनुक्रमणिका पर्व)
यह शुभ, ललित एवं मंगलमय शब्द विन्यास से अलंकृत है तथा वैदिक-लौकिक या संस्कृत-प्राकृत संकेतों से सुशोभित है। अनुष्टुप आदि नाना प्रकार के छन्द भी इसमें प्रयुक्त हुए है; अत: यह ग्रन्थ विद्वानों को बहुत ही प्रिय है। हिमालय की पवित्र तलहटी में पर्वतीय गुफा के भीतर धर्मात्मा व्यास जी स्नानादि से शरीर-शुद्धि करके पवित्र हो कुश का आसन बिछाकर बैठै थे। उस समय नियम पूर्वक शान्त चित्त हो वे तपस्या में संलग्न थे। ध्यानासन योग में स्थित हो उन्होंने धर्मपूर्वक महाभारत-इतिहास के स्वरूप का विचार करके ज्ञानदृष्टि द्वारा आदि से अन्त तक सब कुछ प्रत्यक्ष की भाँति देखा (और इस ग्रन्थ का निर्माण किया)।
सृष्टि के प्रारम्भ में जब यहाँ वस्तु विशेष या नाम रूप आदि का भान नहीं होता था, प्रकाश का कहीं नाम नहीं था; सर्वत्र अन्धकार-ही-अन्धकार छा रहा था, उस समय एक बहुत बड़ा अण्डक प्रकट हुआ, जो सम्पूर्ण प्रजा का अविनाशी बीज था। ब्रह्मकल्प के आदि में उसी महान एवं दिव्य अण्डक को चार प्रकार के प्राणि-समुदाय का कारण कहा जाता है। जिसमें सत्य स्वरूप ज्योतिर्मय सनातन ब्रह्म अन्तर्यामी रूप से प्रविष्ट हुआ है, ऐसा श्रुति वर्णन करती है[1] वह ब्रह्म अद्भुत, अचिन्त्य, सर्वत्र समान रूप से व्याप्त, अव्यक्त, सूक्ष्म, कारण स्वरूप एवं अनिर्वचनीय है और जो कुछ सत-असत रूप में उपलब्ध होता है, सब वही है। उस अण्डक से ही प्रथम देहधारी, प्रजापालक प्रभु, देवगुरू पितामह ब्रह्म तथा रूद्र, मनु, प्रजापति, प्रमेष्ठी, प्रचेताओं के पुत्र, दक्ष तथा दक्ष के सात पुत्र (क्रोध, तम, दम, विक्रीत, अडिगरा, कर्दम और अश्व ) प्रकट हुए। तत्पश्चात इक्कीस प्रजापति (मरीचि आदि सात ऋषि और चौदह मनु) पैदा हुए।[2]जिन्हें मत्य कूर्म आदि अवतारों के रूप में सभी ऋषि मुनि जानते हैं, वे अप्रमेयात्मा विष्णु रूप पुरुष और उनकी विभूति रूप विश्वदेव, आदित्य, वसु एवं अश्विनी कुमार आदि भी क्रमश: प्रकट हुए हैं। तदनन्तर यक, साध्य, पिशाच, गुह्मक और पितर एवं तत्वज्ञानी सदाचार परायण साधुशिरोमणि ब्रह्मर्षिगण प्रकट हुए। इसी प्रकार बहुत से राजर्षियों का प्रदुर्भाव हुआ है, जो सब के सब शौर्यादि सद्गुणों से सम्पन्न थे। क्रमश: उसी ब्रह्माण्ड से जल, द्युलोक, पृथ्वी, वायु, अन्तरिक्ष और दिशाएँ भी प्रकट हुई हैं।
संवत्सर, ऋतु, मास, पक्ष, दिन तथा रात्रि का प्राकट्य भी क्रमश: उसी से हुआ है। इसके सिवा और भी जो कुछ लोक में देखा या सुना जाता है वह सब उसी अण्डक से उत्पन्न हुआ है। यह जो कुछ भी स्थावर-जगत दृष्टिगोचर होता है, वह सब प्रलय काल आने पर अपने कारण में विलीन हो जाता है। जैसे ऋतु के आने पर उसके फल-पुष्प आदि नाना प्रकार के चिन्ह प्रकट होते हैं और ऋतु बीत जाने पर वे सब समाप्त हो जाते हैं उसी प्रकार कल्प का आरम्भ होने पर पूर्ववत वे पदार्थ दृष्टिगोचर होने लगते हैं और कल्प के अन्त में उनका विलय हो जाता है। इस प्रकार यह अनादि और अनन्त काल-चक्र लोक में प्रवाह रूप से नित्य घूमता रहता है। इसी में प्राणियों की उत्पति और संहार हुआ करते हैं। इसका कभी उद्भव और विनाश नहीं होता। देवताओं की सृष्टि संक्षेप में तैंतीस हजार, तैंतीस सौ और तैंतीस लक्षित होती है।
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