महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 40 श्लोक 1-20
चत्वारिंश (40) अध्याय: द्रोण पर्व ( द्रोणाभिषेक पर्व)
अभिमन्यु के द्वारा दु:शासन और कर्ण की पराजय
संजय कहते हैं – राजन् ! तदनन्तर उन दोनों पुरुषसिंहों में घोर युद्ध होने लगा । उस समय शत्रुवीरों का संहार करनेवाले महाबाहु सुभद्राकुमार ने बड़ी फुर्ती के साथ दु:शासन के बाणसहित धनुष को काट गिराया और उसे अपने भयंकर बाणों द्वारा सब ओर से क्षत-विक्षत कर दिया ।। इसके बाद बुद्धिमान् अभिमन्यु किंचित् मुस्कराकर सामने विपक्ष में खड़े हुए दु:शासन से, जिसका शरीर बाणों से अत्यन्त घायल हो गया था, इस प्रकार कहा । बड़े सौभाग्य की बात है कि आज मैं युद्ध में सामने आये हुए और अपने को शूरवीर माननेवाले तुझ अभिमानी, निष्ठुर, धर्मत्यागी और दूसरों की निन्दा में तत्पर रहने वाले शत्रु को प्रत्यक्ष देख रहा हूं । ओ मूर्ख ! तूने धूतक्रीड़ा मं विजय पाने से उन्मक्त होकर सभा में राजा धृतराष्ट्र के सुनते हुए जो अपने निष्ठुर वचनों द्वारा धर्मराज युधिष्ठिर को कुपित किया था और शकुनि के आत्मबल-जूए में छल-कपट का आश्रय लेकर जो भीमसेन के प्रति बहुत सी अंट-संट बातें कही थी, इससे उन महात्मा धर्मराज को जो क्रोध हुआ, उसी का यह फल है कि तुझे आज यह दुर्दिन प्राप्त हुआ है । दूसरों के धन का अपहरण, क्रोध, अशान्ति, लोभ, ज्ञानलोप, द्रोह, दु:साहसपूर्ण बर्ताव तथा मेरे उग्र धनुर्धर पितरों के राज्य का अपहरण-इन सभी बुराइयों के फलस्वरूप उन महात्मा पाण्डवों के क्रोध से तुझे आज यह बुरा दिन प्राप्त हुआ है । दुर्मते ! तू अपने उस अधर्म का भयंकर फल प्राप्त कर । आज मै सारी सेनाओं के देखते-देखते अपने बाणों द्वारा तुझे दण्ड दॅूगा । आज मैं युद्ध में उन महात्मा पितरों के उस क्रोध का बदला चुकाकर उऋण हो जाऊँगा । -कुरूकुलकलक ! आज रोष में भरी हुई माता कृष्णा तथा पितृतुल्य (ताऊ) भीमसेन का अभीष्ट मनोरथ पूर्ण करके इस युद्ध में उनके ऋण से उऋण हो जाऊँगा । यदि तू युद्ध छोड़कर भाग नही जायगा तो आज मेरे हाथ से जीवित नही छूट सकेगा। ऐसा कहकर शत्रुवीरों का नाश करनेवाले महाबाहु अभिमन्यु ने काल, अग्नि और वायु के समान तेजस्वी बाण का संधान किया, जो दु:शासन के प्राण लेने में समर्थ था । वह बाण तुरंत ही उसके वक्ष:स्थल पर पहॅुचकर उसके गले को विदीर्ण करता हुआ पखंसहित भीतर घुस गया, मानो कोई सर्प बॉबी में समा गया हो । तत्पश्चात् अभिमन्यु ने दु:शासन को पचीस बाण और मारे । धनुष को कान तक खींचकर चलाये हुए उन बाणों द्वारा, जिनका स्पर्श अग्नि के समान दाहक था, गहरी चोट खाकर दु:शासन व्यथित हो रथ की बैठक में बैठ गया । महाराज ! उस समय उसे भारी मूर्छा आ गयी । तब अभिमन्यु के बाणोंसे पीडित एवं अचेत हुए दु:शासन को सारथि बड़ी उतावली के साथ युद्धस्थल से बाहर हटा ले गया । उस समय पाण्डव, पाँचों द्रौपदीकुमार, राजा विराट, पाचाल और केकय दु:शासन को पराजित हुआ देख जोर-जोर से सिंहनाद करने लगे । पाण्डवों के सैनिक वहां हर्ष में भरकर नाना प्रकार के सभी रणवाघ बजाने लगे और मुसकराते हुए वे सुभद्राकुमार का पराक्रम देखने लगे । धमंड में भरे हुए अपने कटटर शत्रु को पराजित हुआ देख अपनी ध्वजाओं के अग्रभाग में धर्म, वायु, इन्द्र और अश्विनी कुमारों की प्रतिमा धारण करने वाले महारथी द्रौपदीकुमार, सात्यकि, चेकितान, धृष्टधुम्न, शिखण्डी, केकय राजकुमार, धृष्टकेतु, मत्स्य, पाचाल, सृंजय तथा युधिष्ठिर आदि पाण्डव बड़े हर्ष के साथ उतावले होकर द्रोणाचार्य के व्यूह का भेदन करने की इच्छा से उस पर टूट पड़े ।
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