महाभारत आश्रमवासिक पर्व अध्याय 22 श्लोक 17-25
द्वाविंश (22) अध्याय: आश्रमवासिक पर्व (आश्रमवास पर्व)
‘राजन् ! आपको विदित हो कि अन्तःपुर की सभी बहुएँ वन में जाने के लिये पैर आगे बढ़ाये खड़ी हैं । वे सब की सब कुन्ती, गान्धारी तथा ससुर जी के दर्शन करना चाहती हैं। ‘भरतभूषण ! द्रौपदी देवी के ऐसा कहने पर राजा युधिष्ठिर ने समस्त सेनापतियों को बुलाकर कहा - ‘तुम लोग बहुत से रथ और हाथी घोड़ो से सुसज्जित सेना को कूच करने की आज्ञा दो । मैं वनवासी महाराज धृतराष्ट्र के दर्शन करने के लिये चलूँगा’। इसके बाद राजा ने रनिवास के अध्यक्षों को आज्ञा दी - ‘तुम सब लोग हमारे लिये भाँति भाँति के वाहन और पालकियों को हजारों की संख्या में तैयार करो। ‘आवश्यक सामानों से लदे हुए छकडे़, बाज़ार, दुकानें, खजाना, कारीगर और कोषाध्यक्ष - ये सब कुरूक्षेत्र के आश्रम की ओर रवाना हो जायँ। ‘नगरवासियों में से जो कोई भी महाराज का दर्शन करना चाहता हो, उसे बेरोक-टोक सुविधापूर्वक सुरक्षित रूप से चलने दिया जाय। ‘पाकशाला के अध्यक्ष और रसोइये भोजन बनाने सब सामानों तथा भाँति भाँति के भक्ष्य भोज्य पदार्थों को मेरे छकड़ों पर लादकर ले चलें। ‘नगर में यह घोषणा करा दी जाय कि ‘कल सबेरे यात्रा की जायगी; इसलिये चलने वालों को विलम्ब नहीं करना चाहिये ।’ मार्ग में हम लोगों के ठहरने के लिये आज ही कई तरह के डेरे तैयार कर दिये जायँ। राजन् ! इस प्रकार आज्ञा देकर सबेरा होते ही अपने भाई पाण्डवों सहित राजा युधिष्ठिर ने स्त्री और बूढ़ों को आगे करके नगर से प्रस्थान किया। बाहर जाकर पुरवासी मनुष्यो की प्रतीक्षा करते हुए पाँच दिनों तक एक ही स्थान पर टिके रहे। फिर सबको साथ लेकर वन में गये।
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