महाभारत आदि पर्व अध्याय 46 श्लोक 1-23
षट्चत्वारिंश (46) अध्याय: आदि पर्व (आस्तीक पर्व)
उग्रश्रवाजी कहते हैं—शौनकजी ! यह सुनकर जरत्कारू अत्यन्त शोक में मग्न हो गये और दुःख से आँसू बहाते हुए गदगद वाणी में अपने पितरों से बोले। जरत्कारू ने कहा—आप मेरे ही पूर्वज पिता और पितामह आदि हैं। अतः बताइये आपका प्रिय करने के लिये मुझे क्या करना चाहिये। मैं ही आप लोगों का पुत्र पापी जरत्कारू हूँ। आप मुझ अकृतात्मा पापी को इच्छानुसार दण्ड दें। पितर बोले—पुत्र ! बड़े सौभाग्य की बात है जो तुम अकस्मात इस स्थान पर आ गये। ब्रह्मन ! तुमने अब तक विवाह क्यों नहीं किया? जरत्कारू ने कहा—पितृगण ! मेरे हृदय में यह बात निरन्तर घूमती रहती थी कि मैं उर्ध्वरेता (अखण्ड ब्रह्मचर्य का पालक) होकर इस शरीर को परलोक (पुण्यधाम) में पहुँचाऊँ। अतः मैंने अपने मन में यह दृढ़ निश्चय कर लिया था कि ‘मैं कभी पत्नी परिग्रह (विवाह) नहीं करूँगा।’ किंतु पितामहो ! आपको पक्षियों की भाँति लटकते देख अखण्ड ब्रह्मचर्य के पालन सम्बन्धी निश्चय से मैंने अपनी बुद्धि लौटा ली है। अब मैं आपका प्रिय मनोरथ पूर्ण करूँगा, निश्चय ही विवाह कर लूँगा। (परंतु इसके लिये एक शर्त होगी—) ‘यदि मैं कभी अपने ही जैसे नाम वाली कुमारी कन्या पाऊँगा, उसमें भी जो भिक्षा की भाँति बिना माँगे स्वयं ही विवाह के लिये प्रस्तुत हो जायेगी और जिसके पालन-पोषण का भार मुझ पर न होगा, उसी का मैं पाणिग्रहण करूँगा।’ यदि ऐसा विवाह मुझे सुलभ हो जाये तो कर लूँगा, अन्यथा विवाह करूँगा ही नहीं। पितामहो ! यह मेरा सत्यनिश्चय है। वैसे विवाह से जो पत्नी मिलेगी, उसी के गर्भ से आप लोगों को तारने के लिये कोई प्राणी उत्पन्न होगा। मैं चाहता हूँ मेरे पितर नित्य शाश्वत लोकों में बने रहें, वहाँ वे अक्षय सुख के भागी हों। उग्रश्रवाजी कहते हैं—शौनकजी ! इस प्रकार पितरों से कहकर जरत्कारू मुनि पूर्ववत पृथ्वी पर विचरने लगे। परंतु ‘यह बूढ़ा है’ ऐसा समझकर किसी ने कन्या नहीं दी, अतः उन्हें पत्नी उपलब्ध न हो सकी। जब वे विवाह की प्रतीक्षा में खिन्न हो गये, तब पितरों से प्रेरित होने के कारण वन में जाकर अत्यन्त दुखी हो जोर-जोर से ब्याह के लिये पुकारने लगे। वन में जाने पर विद्वान् जरत्कारू ने पितरों के हित की कामना से तीन बार धीरे-धीरे यह बात कही—‘मैं कन्या माँगता हूँ।' (फिर जोर से बोले—) ‘यहाँ जो स्थावर जंगम दृश्य या अदृश्य प्राणी हैं, वे सब मेरी बात सुनें—‘मेरे पितर भयंकर कष्ट में पडे़ हैं और दुःख से आतुर हो संतान प्राप्ति की इच्छा रखकर मुझे प्रेरित कर रहे हैं कि ‘तुम विवाह कर लो।' ‘अतः विवाह के लिये मैं सारी पृथ्वी पर घूमकर कन्या की भिक्षा चाहता हूँ। यद्यपि मैं दरिद्र हूँ और सुविधाओं के अभाव में दुखी हूँ, तो भी पितरों की आज्ञा से विवाह के लिये उद्यत हूँ। ‘मैंने यहाँ जिसका नाम लेकर पुकारा है, उसमें से जिस किसी भी प्राणी के पास विवाह के योग्य विख्यात गुणों वाली कन्या हो, वह सब दिशाओं में विचरने वाले मुझ ब्राह्मण को अपनी कन्या दे। ‘जो कन्या मेंरे ही जैसे नाम वाली हो, भिक्षा की भाँति मुझे दी जा सकती हो और जिसके भरण-पोषण का भार मुझ पर न हो, ऐसी कन्या कोई मुझे दे।' तब उन नागों ने जो जरत्कारू मुनि की खोज में लगाये गये थे, उनका यह समाचार पाकर उन्होंने नागराज वासुकि को सूचित किया। उनकी बात सुनकर नागराज वासुकि अपनी उस कुमारी बहिन को वस्त्राभूषणों से विभूषित करके साथ ले वन में मुनि के समीप गये। ब्रह्मन ! वहाँ नागेन्द्र वासुकि ने महात्मा जरत्कारू को भिक्षा की भाँति वह कन्या समर्पित की; किंतु उन्होंने सहसा उसे स्वीकार नहीं किया। सोचना सम्भव है, यह कन्या मेरे जैसे नाम वाली न हो। इनके भरण-पोषण का भार किस पर रहेगा, इस बात का निर्णय भी अभी तक नहीं हो पाया है। इसके सिवा मैं मोक्ष भाव में स्थित हूँ, यही सोचकर उन्होंने पत्नी-परिग्रह में शिथिलता दिखायी। भृगुनन्दन ! इसीलिये पहले उन्होंने वासुकि से उस कन्या का नाम पूछा और यह स्पष्ट कह दिया—‘मैं इसका भरण-पोषण नहीं करूँगा।'
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