महाभारत वन पर्व अध्याय 1 श्लोक 38-46

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प्रथम (1) अध्‍याय: वन पर्व (अरण्‍य पर्व)

महाभारत: वन पर्व: प्रथम अध्याय: श्लोक 38-46 का हिन्दी अनुवाद

मेरे हृदय में स्थित सब कार्यों में यही कार्य सबसे उत्‍तम है, आपके द्वारा इसके किए जाने पर मुझे महान् संतोष प्राप्‍त होगा और इसी से मेरा सत्‍कार भी हो जायेगा।

वैशम्‍पायनजी कहते हैंजनमेजय ! धर्मराज के द्वारा इस प्रकार विनयपूर्वक अनुरोध किये जाने पर उन समस्‍त प्रजा ने ‘हां ! महाराज !' ऐसा कहकर एक ही साथ भयंकर अार्तनाद किया। कुन्‍ती पुत्र युधिष्ठिर के गुणों का स्‍मरण करके प्रजा वर्ग के लोग दु:ख से पीड़ित और अत्‍यन्‍त आतुर हो गये। उनकी पाण्‍डवों के साथ जाने की इच्‍छा पूर्ण नहीं हो सकी। वे केवल उनसे मिलकर लौट आये। पुरवासियों के लौट जाने पर पाण्‍डवगण रथों पर बैठकर गंगाजी के किनारे प्रमाणकोटि नामक वट के समीप आये। संध्‍या होते-होते उस वट के निकट पहुँचकर शूरवीर पाण्‍डवों ने पवित्र जल का स्‍पर्श (आचमन और संध्‍या वन्‍दन आदि ) करके वह रात वहीं व्‍यतीत की। दु:ख से पीडित हुए वे पाँचों पाण्‍डुकुमार उस रात में केवल जल पीकर ही रह गये। कुछ ब्राह्मण लोग भी इन पाण्‍डवों के साथ स्‍नेहवश वहाँ तक चले आये थे।

उनमें से कुछ साग्नि (अग्निहोत्री ) थे और कुछ निराग्नि। उन्‍होंने अपने शिष्‍यों तथा भाई-बंधुओं को भी साथ ले लिया था। वेदों का स्वाध्याय करने वाले उन ब्राह्मणों से घिरे हुए राजा की बड़ी शोभा हो रही थी। संध्‍याकाल की नैसर्गिक शोभा से रमणीय तथा राक्षस, पिशाच आदि के संचरण का समय होने से अत्‍यंत भयंकर प्रतीत होने वाले उस मुहूर्त में अग्नि प्रज्‍वलित करके वेद मंत्रों के घोषपूर्वक अग्निहोत्र करने के बाद उन ब्राह्मणों में परस्‍पर संवाद होने लगा। हंस के समान मधुर स्‍वर में बोलने वाले उन श्रेष्‍ठ ब्राह्मणों ने कुरूकुलरत्‍न राजा युधिष्ठिर को आश्‍वासन देते हुए सारी रात उनका मनोरंजन किया।

इस प्रकार श्री महाभारत वनपर्व के अरण्य पर्व में पुरवासियों के लौटने से संबंध रखने वाला पहला अध्‍याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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