महाभारत शल्य पर्व अध्याय 9 श्लोक 1-22

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नवम (9) अध्याय: शल्य पर्व (ह्रदप्रवेश पर्व)

महाभारत: शल्य पर्व: नवम अध्याय: श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद

उभय पक्ष की सेनाओं का घमासान युद्ध और कौरव-सेना का पलायन

संजय कहते हैं- राजेन्द्र ! तदनन्तर कौरवों का सृंजयों के साथ घोर युद्ध आरम्भ हो गया, जो देवासुर संग्राम के समान भय बढ़ाने वाला था । पैदल, रथी, हाथी सवार तथा सहस्त्रों घुड़सवार पराक्रम दिखाते हुए एक दूसरे से भिड़ गये । जैसे वर्षाकाल के आकाश में मेघों की गम्भीर गर्जना होती रहती है, उसी प्रकार रणभूमि में दौडे़ लगाते हुए भीमकाय गजराजों का महान् कोलाहल सुनायी देने लगा । मदोन्मत्त हाथियों के आघात से कितने ही रथी रथसहित धरती पर लोट गये। बहुत-से वीर उनसे खदेडे़ जाकर इधर-उधर भागने लगे । भारत ! उस युद्धस्थल में शिक्षा प्राप्त रथियों ने घुड़सवारों तथा पादरक्षकों को अपने बाणों से मारकर यमलोक भेज दिया।। राजन् ! रणभूमि में विचरते हुए बहुत-से सुशिक्षित घुड़सवार बडे़-बडे़ रथों को घेरकर उनपर प्राप्त, शक्ति तथा ऋष्टियों का प्रहार करने लगे । कितने ही धनुर्धर पुरुष महारथियों को घेर लेते और एक-एकपर बहुत-से योद्धा आक्रमण करके उसे यमलोक पहुँचा देते थे । महाराज ! कई हाथियों ने क्रोधपूर्वक बहुत-से बाणों की वर्षा करने वाले किसी रथी को सब ओर से घेरकर मार डाला । भारत ! वहाँ रणभूमि में एक हाथी सवार दूसरे हाथी सवार पर और एक रथी दूसरे रथी पर आक्रमण करके शक्ति, तोमर और नाराचों की मार से उसे यमलोक पहुँचा देता था।। समरांगण के बीच बहुत-से रथ, हाथी और घोडे़ पैदल योद्धाओं को कुचलते तथा सबको अत्यन्त व्याकुल करते हुए दृष्टिगोचर होते थे । जैसे हिमालय के शिखर की चैरस भूमि पर रहने वाले हंस नीचे पृथ्वी पर जल पीने के लिये तीव्र गति से उड़ते हुए जाते हैं, उसी प्रकार चामरशोभित अश्व वहाँ सब ओर बडे़ वेग से दौड़ लगा रहे थे । प्रजानाथ ! उन घोड़ों की टापों से खुदी हुई भूमि प्रियतम के नखों से क्षत-विक्षत हुई नारी के समान विचित्र शोभा धारण करती थी । भारत ! घोड़ों की टापों के शब्द, रथ के पहियों की घर्घराहट, पैदल योद्धाओं के कोलाहल, हाथियों की गर्जना तथा वाद्यों के गम्भीर घोष और शंखों की ध्वनि से प्रतिध्वनित हुई यह पृथ्वी वज्रपात की आवाज से गूँजती हुई-सी प्रतीत होती थी।। टंकारते हुए धनुष, दमकते हुए अस्त्र-शस्त्रों के समुदाय तथा कवचों की प्रभा से चकाचौंध के कारण कुछ भी सूझ नहीं पड़ता था । हाथी की सूँड़ के समान बहुत-सी भुजाएँ कटकर धरती पर उछलती, लोटती और भयंकर वेग प्रकट करती थीं । महाराज ! पृथ्वी पर गिरते हुए मस्तकों का शब्द, ताड़ के वृक्षों चूकर गिरे हुए फलों के धमाके की आवाज के समान सुनायी देता था । भारत ! गिरे हुए रक्तरंजित मस्तकों से इस पृथ्वी की ऐसी शोभा हो रही थी, वहाँ सुवर्णमय कमल छिपाये गये हों । राजन् ! मुझे नेत्रों वाले प्राणशून्य घायल मस्तकों से ढकी हुई पृथ्वी लाल कमलों से आच्छादित हुई सी शोभा पा रही थी । राजेन्द्र ! बाजूबंद तथा दूसरे बहुमूल्य आभूषणों से विभूषित, चन्दनचर्चित भूजाएँ कटकर पृथ्वी पर गिरी थीं, जो महान् इन्द्रध्वज के समान जान पड़ती थीं। उनके द्वारा रणभूमि की अपूर्व शोभा हो रही थी । उस महासमर में कटी हुई नरेशों की जाँघें हाथी की सूँडों के समान प्रतीत होती थी। उनके द्वारा वह सारा समरांगण पट गया था ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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