महाभारत आश्रमवासिक पर्व अध्याय 20 श्लोक 1-21

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विंश (20) अध्याय: आश्रमवासिक पर्व (आश्रमवास पर्व)

महाभारत: आश्रमवासिक पर्व: विंश अध्याय: श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद

नारद जी का प्राचीन राजर्षियों की तपःसिद्ध का दृष्टान्त देकर धृतराष्ट्र की तपस्या विषयक श्रद्धा को बढ़ाना तथा शतयूप के पूछने पर धृतराष्ट्र को मिलने वाली गति का भी वर्णन करना

वैशम्पायन जी कहते हैं - जनमेजय ! तदनन्तर वहाँ राजा धृतराष्ट्र से मिलने के लिये नारद, पर्वत, महातपस्वी देवल, शिष्यों सहित महर्षि व्यास तथा अन्यान्य सिद्ध, मनीषी, श्रेष्ठ मुनिगण आये । उनके साथ परम धर्मात्मा वृद्ध राजर्षि शतयूप भी पधारे थे। महाराज ! कुन्ती देवी ने उन सबकी यथायोग्य पूजा की । वे तपस्वी ऋषि भी कुन्ती की सेवा से बहुत संतुष्ट हुए। तात ! वहाँ उन महर्षियों ने महात्मा राजा धृतराष्ट्र का मन लगाने के लिये अनेक प्रकार की धार्मिक कथाएँ कहीं। सब कुछ प्रत्यक्ष देखने वाले देवर्षि नारद ने किसी कथा के प्रसंग में यह कथा कहानी आरम्भ की। नारद जी बोले - राजन् ! पूर्वकाल में सहस्त्रचित्य नाम से प्रसिद्ध एक तेजस्वी राजा थे, जो केकय देश की प्रजा का पालन करते थे । उन्हें कभी किसी से भय नहीं होता था । यहाँ जो ये राजर्षि शतयूप विराज रहे हैं, इनके वे पितामह थे। धर्मात्मा राज सस्त्रिचित्य अपने परम धर्मात्मा ज्येष्ठ पुत्र. को राज्य का भार सौंपकर तपस्या के लिये इसी वन में प्रविष्ट हुआ। ये महान् तेजस्वी भूपाल अपनी उद्दीप्त तपस्या पूरी करके इन्द्रलोक को प्राप्त हुए। तपस्या से उनके सारे पाप भस्म हो गये थे । राजन् ! इन्द्रलोक में आते-जाते समय मैंने उन राजर्षि को अनेक बार देखा है। इसी प्रकार भगदत्त के पिता महाराज शैलालय भी तपस्या के बल से ही इन्द्रलोक को गये हैं। महाराज ! राजा पृषध्र वज्रधारी इन्द्र के समान पराक्रमी थे । उन्होंने भी तपस्या के बल से इस लोक से जाने पर स्वर्गलोक प्राप्त किया था। नरेश्वर ! मान्धाता के पुत्र पुरूकुत्स ने भी, सरिताओं में श्रेष्ठ नर्मदा जिनकी पत्नी हुई थी, इसी वन में तपस्या करके बहुत बड़ी सिद्धि प्राप्त की थी । यहीं तपस्या करके वे नरेश स्वर्गलोक में गये थे। राजन् ! परम धर्मात्मा राजा शशलोमा ने भी इसी वन में उत्तम तपस्या करके स्वर्ग प्राप्त किया था। नरेश्वर ! व्यासजी की कृपा से तुम भी इसी तपोवन में आ पहुँचे हो । अब यहाँ तपस्या करके दुर्लभ सिद्धि का आश्रय ले श्रेष्ठ गति प्राप्त कर लोगे। नृपश्रेष्ठ ! तुम भी तपस्या के अन्त में तेज से सम्पन्न हो गान्धारी के साथ उन्हीं महात्माओं की गति प्राप्त करोगे। महाराज ! तुम्हारे छोटे भाई पाण्डु इन्द्र के पास ही रहते है। वे सदा तुम्हें याद करते हैं । निश्चय ही वे तुम्हें कल्याण के भागी बनायेंगे। तुम्हारी और गान्धारी देवी की सेवा करने से यह तुम्हारी यशस्विनी बहू युधिष्ठिरजननी कुन्ती अपने पति के लोक में पहुँच जायेगी । युधिष्ठिर साक्षात् सनातन धर्मस्वरूप् हैं (अतः उनकी माता कुन्ती की सद्गति में कोई संदेह ही नहीं है)। नरेश्वर ! यह सब हम अपनी दिव्य दृष्टि से देख रहे हैं । विदुर महात्मा युधिष्ठिर के शरीर में प्रवेश करेंगे और संजय उन्हीं का चिन्तन करने के कारण यहाँ से सीधे स्वर्ग को जायँगे। वैशम्पायन जी कहते हैं - जनमेजय ! यह सुनकर महात्मा कौरवराज धृतराष्ट्र अपनी पत्नी के साथ बहुत प्रसन्न हुए । उन विद्वान् नरेश ने नारद जी के वचनों की प्रशंसा करके उनकी अनुपम पूजा की।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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