महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 10 श्लोक 1-26
दशम (10) अध्याय: द्रोण पर्व ( द्रोणाभिषेक पर्व)
राजा धृतराष्ट्र का शोक से व्याकुल होना और संजय से युद्ध विषयक प्रश्न
वैशम्पायन जी कहते है – जनमेजय ! सूतपूत्र संजय से इस प्रकार प्रश्न करते-करते हार्दिक शोकसे अत्यन्त पीडित हो अपने पुत्रों की विजय की आशा टूट जाने के कारण राजा धृतराष्ट्र अचेत से होकर पृथ्वीपर गिर पड़े । उस समय अचेत पड़े हुए राजा धृतराष्ट्र को उनकी दासियॉ पंखा झलने लगीं और उनके ऊपर परम सुगन्धित एवं अत्यन्त शीतल जल छिड़कने लगी । महाराज को गिरा देख धृतराष्ट्र की बहुत सी स्त्रियॉ उन्हें चारो ओर से घेरकर बैठ गयी और उन्हें हाथों से सहलाने लगी । फिर उन सुमुखी स्त्रियों ने राजा को धीरे-धीरे धरती से उठाकर सिंहासन पर बिठाया । उस समय उनके नेत्रो से ऑसू झर रह थे और कण्ठ गद्रद हो रहे थे । सिंहासन पर पहॅुचकर भी राजा धृतराष्ट्र मूर्च्छा से पीडित हो निश्चेष्ट हो गये । उस समय सब ओर से उनके ऊपर व्यजन डुलाया जा रहा था । फिर धीरे-धीरे होश में आने पर कॉपते हुए राजा धृतराष्ट्र ने पुन: सूतजातीय संजय से युद्ध का यथावत् समाचार पूछा । धृतराष्ट्र बोले – जो उगते सूर्य की भॉति अपनी प्रभा से अन्धकार दूर कर देते हैं, उन अजातशत्रु युधिष्ठिर को द्रोण के समीप आने से किसने रोका था ? । जो मद की धारा बहाने वाले, हथिनी के साथ समागम के समय आये हुए विपक्षी हाथीपर आक्रमण करने वाले तथा गजयूथपतियों के लिये अजेय मतवाले गजराजके समान वेगशाली और पराक्रमी हैं, कौरवों के प्रति जिनका क्रोध बढ़ा हुआ हैं, जिन पुरुषप्रवर वीरने रणक्षेत्र में बहुत से वीरों का संहार किया हैं, जो महापराक्रमी, धैर्यवान् एवं सत्यप्रतिज्ञ हैं और अपनी भयंकर दृष्टि से अकेले ही दुर्योधन की सम्पूर्ण सेना को भस्म कर सकते हैं, जो क्रोध भरी दृष्टि से ही शत्रु का संहार करने में समर्थ हैं, विजय के लिये प्रयत्नशील, अपनी मर्यादा से कभी च्युत न होने वाले, जितेन्द्रिय तथा लोक में विशेष सम्मानित हैं, उस प्रसन्नवदन धनुर्धर युधिष्ठिरको द्रोणाचार्य के सामने आते देख मेरे पक्ष के किन शूरवीरों ने रोका था ? जो धर्म से कभी विचलित नहीं होते हैं, उन महाधनुर्धर दुर्धर्ष वीर पुरुषसिंह कुन्तीकुमार राजा युधिष्ठिर मेरे किन योद्धाओं ने आक्रमण किया था ? जिन्होंने वेगसे ही पहॅुचकर द्रोणाचार्य पर आक्रमण किया था, जो शत्रुके समक्ष महान् उत्साही हैं तथा जिनमें दस हजार हाथियों के समान बल है, उन भीमसेन को आते देख किन वीरों ने रोका था ? जो मेघ के समान श्यामवर्णवाले परम पराक्रमी महारथी अर्जुन विधुत् की उत्पत्ति करते हुए बादलों के समान भयंकर वजास्त्र का प्रयोग करते हैं, जो जलकी वर्षा करने वाले इन्द्र के समान बाणसमूहों की वृष्टि करते हैं तथा जो अपने धनुष की टंकार और रथ के पहिये की घरघराहट से सम्पूर्ण दिशाओं को शब्दायमान कर देते हैं, वे स्वयं भयंकर मेघस्वरूप जान पड़ते है । धनुष ही उनके समीप विधुत्प्रभा के समान प्रकाशित होता है । रथियों की सेना उनकी फैली हुई घटाऍ जान पड़ती है । रथ के पहियों की घरघराहट मेघ गर्जना के समान प्रतीत होती है । उनके बाणों की सनसनाहट वर्षा के शब्द की भॉति अत्यन्त मनोहर लगती है । क्रोधरूपी वायु उन्हें आगे बढ़ने की प्रेरणा देती है । वे मनोरथ की भॉति शीघ्रगामी और विपक्षियों के मर्मस्थलों को विदीर्ण कर डालनेवाले हैं । बाण धारण करके बड़े भयानक प्रतीत होते और रक्तरूपी जलसे सम्पूर्ण दिशाओं को आलावित करते हुए मनुष्यों की लाशों से धरती को पाट देते हैं ।
'
« पीछे | आगे » |