महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 1 श्लोक 66-83
प्रथम (1) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)
व्याधने कहा— मृत्यु और सर्प ! यदि तुम दोनों कालके अधीन हो तो मुझ तटस्थ व्यक्ति को परोपकारी के प्रति वर्ष और दूसरोंका अपकार करने वाले तुम दोनों पर क्रोध क्यों होता है, यह मैं जानना चाहता हूँ। मृत्युने कहा—व्याध ! जगत् में जो कोई भी चेष्टा हो रही है, वह सब कालकी प्रेरणा से ही होती है । यह बात मैंने तुमसे पहले ही बता दी है। अत: व्याध ! हम दोनोंको कालके अधीन और कालके ही आदेश का पालक समझकर तुम्हें कभी हमारे ऊपर दोषारोपण नहीं करना चाहिये। भीष्मजी कहते हैं— युधिष्ठिर ! तदनन्तर धार्मिक विषय में संदेह उपस्थित होने पर काल भी वहाँ आ पहुँचा; तथा सर्प, मृत्यु एवं अर्जनक व्याधसे इस प्रकार बोला। कालने कहा— व्याध ! न तो मैं, न यह मृत्यु और न यह सर्प ही इस जीवकी मृत्युमें अपराधी हैं। हमलोग किसी की मृत्यु में प्रेरक या प्रयोजक भी नहीं हैं। अर्जुनक ! इस बालकने जो कर्म किया है वही इसकी मृत्युमें प्रेरक हुआ है, दूसरा कोई इसके विनाश का कारण नहीं है । यह जीव अपने कर्मसे ही मरता है। इस बालकने जो कर्म किया है, उसीसे यह मृत्युको प्राप्त हुआ है । इसका कर्म ही इसके विनाशका कारण है। हम सब लोग कर्मके ही अधीन हैं। संसार में कर्म ही मनुष्योंका पुत्र-पौत्रके समान अनुगमन करने वाला है । कर्म ही दु:ख-सुखके सम्बन्ध का सूचक है । इस जगत् में कर्म ही जैसे परस्पर एक-दूसरेको प्रेरित करते हैं, वैसे ही हम भी कर्मोंसे ही प्रेरित हुए हैं। जैसे कुम्हार मिट्टी के लोंदेसे जो-जो बर्तन चाहता है वही बना लेता है । उसी प्रकार मनुष्य अपने किये हुए कर्मके अनुसार ही सब कुछ पाता है। जैसे धूप और छाया दोनों नित्य-निरन्तर एक-दूसरे से मिल रहते हैं, उसी प्रकार कर्म और कर्ता दोनों अपने कर्मानुसार एक-दूसरेसे सम्बद्ध होते हैं। इस प्रकार विचार करनेसे न मैं, न मृत्यु, न सर्प, न तुम (व्याध) और न यह बूढ़ी ब्राह्माणी ही इस बालककी मृत्यु में कारण है । यह शिशु स्वयं ही कर्मके अनुसार अपनी मृत्युमें कारण हुआ है। नरेश्वर ! कालके इस प्रकार कहने पर गौतमी ब्राह्माणी को यह निश्चय हो गया कि मनुष्य को अपने कर्मोंके अनुसार ही फल मिलता है । फिर वह अर्जुनक से बोली। गौतमीने कहा—व्याध ! न यह काल, न सर्प और न मृत्यु ही यहाँ कारण हैं । यह बालक अपने कर्मोंसे ही प्रेरित हो कालके द्वारा विनाश को प्राप्त हुआ है। अर्जुनक ! मैंने भी वैसा कर्म किया था जिससे मेरा पुत्र मर गया है । अत: काल और मृत्यु अपने-अपने स्थान को पधारें; और तू इस सर्पको छोड़ दे। भीष्मजी कहते हैं— राजन् ! तदनन्तर काल, मृत्यु और सर्प जैसे आये थे वैसे ही चले गये; और अर्जुनक तथा गौतमी ब्राह्माणी का भी शोक दूर हो गया । नरेश्वर ! इस उपाख्यानको सुनकर तुम शान्ति धारण करो, शोकमें न पड़ो । सब मनुष्य अपने-अपने कर्मों के अनुसार प्राप्त होने वाले लोकोंमें ही जाते हैं।तुमने या दुर्योधनने कुछ नहीं किया है । कालकी ही यह सारी करतूत समझो, जिससे समस्त भूपाल मारे गये हैं। वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय ! भीष्मकी यह बात सुनकर महातेजस्वी धर्मज्ञ राजा युधिष्ठिरकी चिन्ता दूर हो गयी; तथा उन्होंने पुन: इस प्रकार प्रश्न किया।
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