महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 115 श्लोक 19-35
पंचदशाधिकशततम (115) अध्याय: द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)
तदनन्तर साथ्यकि की सम्मति के अनुसार सारथि सूर्य के समान तेजस्वी तथा पताकाओं से विभूषित रथ के द्वारा धीरे-धीरे आगे बढ़ा । उस रथ के उत्तम घोड़े कुन्द, चन्द्रमा और चाँदी के समान श्वेत रंग के थे, वे सारथि के अधीन रहने वाले और वायु के समान वेगशाली थे तथा युद्ध में उछलते हुए उस रथ का भार वहन करते थे। शंख के समान श्वेत रंग वाले उन उत्तम घोड़ों द्वारा रणभूमि में आते हुए सात्यकि को त्रिगर्तदेशीय शूरवीरों ने सब ओर से गज सेना द्वारा घेर लिया। शीघ्रतापूर्वक लक्ष्य वेधने-वाले समस्त सैनिक नाना प्रकार के तीखे बाणों की वर्षा कर रहे थे । सात्यकि ने भी पैने बाणों द्वारा गज सेना के साथ युद्ध प्रारम्भ किया, मानों वर्षा काल में महान् मेघ पर्वतों पर जल की धारा बरसा रहा हो। शिनिवंश के वीर सात्यकि द्वारा चलाये हुए वज्र और बिजली के समान स्पर्श वाले उन बाणों की मार खाकर उस सेना के हाथी युद्ध का मैदान छोड़कर भागने लगे ।उन हाथियों के दाँत टूटगये, सारे अंगो से खून की धाराएँ बहने लगीं, कुम्भ स्थल और गण्ड स्थल फट गये, कान, मुख और शुण्ड छिन्न-भिन्न हो गये, महावत मारे गये और ध्वजा-पताकाएँ टूटकर गिर गयीं। उनके मर्मस्थान विदीर्ण हो गये, घंटे टूट गये और विशाल ध्वज कटकर गिर पडे़। सवार मारे गये तथा झूल खिसकर गिर गये थे। राजन्! ऐसी अवस्था में उन हाथियों ने भागकर विभिन्न दिशाओं की शरण ली थी। उनके चिंघाड़ ने की ध्वनि मेघों की गर्जना के समान जान पड़ती थ। वे सात्यकि के चलाये हुए नाराच, वत्स-दत्न, भल्ल, अंजलिक, क्षुरप्र और अर्द्धचन्द्र नामक बाणों से विदीर्ण हो नाना प्रकार से आर्तनाद करते, रक्त बहाते तथा मल-मूत्र छोड़ते हुए भाग रहे थे। उनमें से कुछ हाथी चक्कर काटने लगे, कुछ लड़खड़ाने लगे, कुछ धराशायी हो गयेऔर कुछ पीड़ा के मारे अत्यन्त शिथिल हो गये थे। इस प्रकार युयुधान के अग्नि और सूर्य के समान तेजस्वी बाणों द्वारा पीडि़त हुई हाथियों की वह सेना सब ओर भाग गयी।उस गज सेना के नष्ट होने पर महाबली जल संघ युद्ध के लिये उधत हो श्वेत घोड़ों वाले सात्यकि के रथ के समीप अपना हाथीले आया । शूरवीर एवं पवित्र जल संघ ने अपने शरीर में सोने का कवच धारण कर रखा था। उसकी दोनों भुजाओं में सोने के ही बाजूबंद शोभा पा रहे थे। दोनों भुजाओं कानों में कुण्डल और मस्तक पर किरीट चमक रहे थे। उसके हाथ में तलवार थी और सम्पूर्ण शरीर में रक्त चन्दन का लेप लगा हुआ था। उसने अपने सिरपर सोने की बनी हुई चमकीली माला और वक्षः स्थल पर प्रकाश मान पदक एवं कण्ठहार धारण कर रखे थे। महाराज! हाथी की पीठ पर बैठकर अपने सोने के बने हुए धनुष को हिलाता हुआ जलसंघ बिजली सहित मेघ के समान शोभा पा रहा था । सहसा अपनी ओर आते हुए मगधराज के उस गजराज को सात्यकि ने उसी प्रकार रोक दिया, जैसे तट की भूमि समुद्र को रोक देती है। राजन्! सात्यकि के उत्तम बाणों से उस हाथी को अवरुद्ध हुआ देख महाबली जलसंघ रणक्षेत्र में कुपित हो उठा।
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