महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 54 श्लोक 43-58
चतुःपञ्चाशत्तम (54) अध्याय: द्रोण पर्व ( द्रोणाभिषेक पर्व)
तू धर्माचरण द्वारा स्वयं ही अपने आपको पवित्र कर । असत्य का आश्रय लेने से प्राणी स्वयं अपने आपको पाप पक मे डूबों लेंगे । इसलिये अपने मन में आये हुए काम और क्रोध का त्याग करके तू समस्त जीवों का संहार कर । नारदजी कहते हैं – राजन ! वह मृत्यु नामवाली नारी ब्रह्माजी के उस उपदेश से और विशेषत: उनके शाप के भय से भीत होकर उनसे बोली – बहुत अच्छा, आपकी आज्ञा स्वीकार है । वही मृत्यु अन्तकाल आने पर काम और क्रोध का परित्याग करके अनासक्त भाव से समस्त प्राणियों के प्राणों का अपहरण करती है । यही प्राणियों की मृत्यु है, इसी से व्याधियों की उत्पति हुई है । व्याधि नाम है रोग का, जिससे प्राणी रूग्ण होता है (उसका स्वास्थ्य भंग होता है) । आयु समाप्त होने पर सभी प्राणियों की मृत्यु इस प्रकार होती है । अत: राजन ! तुम व्यर्थ शोक न करो । आयु के अन्त मे सारी इन्द्रियॉ प्राणियों के साथ परलोक में जाकर स्थित होती है और पुन: उनके साथ ही इस लोक में लौट आती है । नृपश्रेष्ठ ! इस प्रकार सभी प्राणी देवलोक मे जाकर वहां देवस्वरूप में स्थित होते है तथा वे कर्म देवता मनुष्यों की भॉति भागों की समाप्ति होने पर पुन: इस लोक मे लौट आते है । भयंकर युद्ध करने वाला महान् बलशाली भयानक प्राणवायु प्राणियों के शरीरोंका ही भेदन करता है (चेतन आत्मा का नहीं, क्योंकि) वह सर्वव्यापी, उग्र प्रभावशाली और अनन्त तेज से सम्पन्न है । उसका कभी आवागमन नही होता । राजसिंह ! सम्पूर्ण देवता भी मर्त्य (मरणधर्मा) नाम से विभूषित है, इसलिये तुम अपने पुत्र के लिये शोक न करो । तुम्हारा पुत्र स्वर्गलोक में जा पहॅुचा है और नित्य रमणीय वीर लोकों मे रहकर आनन्द का अनुभव करता है । वह दु:ख का परित्याग करके पुण्यात्मा पुरुषों से जा मिला है । प्राणियों के लियेयह मृत्यु भगवान की ही दी हुई है; जो समय आनेपर यथोचित रूप से (प्रजाजनों का) संहार करती है । प्रजावर्ग के प्राण लेनेवाली इस मृत्यु को स्वयं ब्रह्माजी ने ही रचा है । सब प्राणी स्वयं ही अपने आपको मरते हैं । मृत्यु हाथ में डंडा लेकर इनका वध नहीं करती है । अत: धीर पुरुष मृत्यु को ब्रह्माजी का रचा हुआ निश्चित विद्या न समझकर मरे हुए प्राणियों के लिये कभी शोक नहीं करते है । इस प्रकार ब्रह्माजी की बनायी हुई सारी सृष्टि को ही मृत्यु के वशीभूत जानकर तुम अपने पुत्र के मर जाने से प्राप्त होने वाले शोक का शीघ्र परित्याग कर दो । व्यास जी कहते है – युधिष्ठिर ! नारदजी की कही हुई यह अर्थभरी बात सुनकर राजा अकम्प्न अपने मित्र नारद से इस प्रकार बोले । भगवन् ! मुनिश्रेष्ठ ! आपके मुंह से यह इतिहास सुनकर मेरा शोक पूरा हो गया । मैं प्रसन्न और कृतार्थ हो गया हूं और आपके चरणों में प्रणाम करता हूं । राजा अकम्पन के इस प्रकार कहने पर ऋषियों मे श्रेष्ठतम अमितात्मा देवर्षि नारद शीघ्र ही नन्दन वन को चले गये । जो इस इतिहास को सदा सुनता और सुनाता है, उसके लिये यह पुण्य, यश, स्वर्ग, धन तथा आयु प्रदान करने वाला है । युधिष्ठिर ! उस समय महारथी महापराक्रमी राजा अकम्पन इस उत्तम अर्थ को प्रकाशित करने वाले वृतान्त को सुनकर तथा क्षत्रियधर्म एवं शूरवीरों की परम गति के विषय में जानकर यथासमय स्वर्गलोक को प्राप्त हुए । महाधनुर्धर अभिमन्यु पूर्व जन्म में चन्द्रमा का पुत्र था, वह महारथी और समरागण में समस्त धनुर्धरों के सामने शत्रुओं का वध करके खग, शक्ति, गदा और धनुष द्वारा सम्मुख युद्ध करता हुआ मारा गया है तथा दु:खरहित हो पुन:चन्द्रलोक में ही चला गया है । अत: पाण्डुनन्दन ! तुम भाइयों सहित उत्तम धैर्य धारण करके प्रसाद छोड़कर भली भॉति कवच आदि से सुसज्जित हो पुन: शीघ्र ही युद्ध के लिये तैयार हो जाओ ।
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