महाभारत शल्य पर्व अध्याय 4 श्लोक 40-51
चतुर्थ (4) अध्याय: शल्य पर्व (ह्रदप्रवेश पर्व)
पाण्डव आधुपुरुष हैं तो भी तुम लोगों ने अकारण ही उनके साथ जो बहुत-से अनुचित बर्ताव किये हैं, उन्हीं का यह फल तुम्हें मिला है। भरतश्रेष्ठ ! तुमने अपनी रक्षा के लिये ही प्रयत्नपूर्वक सारे जगत् के लोगों को एकत्र किया था, किंतु तुम्हारा ही जीवन संशय में पड़ गया है। दुर्योधन ! अब तुम अपने शरीर की रक्षा करो; क्योंकि आत्मा (शरीर) ही समस्त सुखों का भाजन है। जैसे पात्र के फूट जाने पर उसमें रखा हुआ जल चारों ओर बह जाता है, उसी प्रकार शरीर के नष्ट होने से उसपर अवलम्बित सुखों का भी अन्त हो जाता है। बृहस्पति की यह नीति है कि जब अपना बल कम या बराबर जान पड़े तो शत्रु के साथ संधि कर लेनी चाहिये। लड़ाई तो उसी वक्त छेड़नी चाहिये, जब अपनी शक्ति शत्रु से बढ़ी-चढ़ी हो। हम लोग बल और शक्ति में पाण्डवों से हीन हो गये हैं। अतः प्रभो ! इस अवस्था में मैं पाण्डवों के साथ संधि कर लेना ही उचित समझता हूँ। जो राजा अपनी भलाई की बात नहीं समझता और श्रेष्ठ पुरुषों का अपमान करता है, वह शीघ्र ही राज्य से भ्रष्ट हो जाता है। उसे कभी कल्याण की प्राप्ति नहीं होती। राजन् यदि तुम राजा युधिष्ठिरके सामने नतमस्तक होकर हम अपना राज्य प्राप्त कर लें तो यही श्रेयस्कर होगा। मूर्खतावश पराजय स्वीकार करने वाले का कभी भला नहीं हो सकता। युधिष्ठिर दयालु हैं। वे राजा धृष्टघुम्न और भगवान श्रीकृष्ण के कहने से तुम्हें राज्य पर प्रतिष्ठित कर सकते हैं। भगवान श्रीकृष्ण किसी से पराजित न होने वाले राजा युधिष्ठिर, अर्जुन और भीमसेन से जो कुछ भी कहेंगे, वे सब लोग उसे निःसंदेह स्वीकार कर लेंगे। कुरूराज धृतराष्ट्र की बात श्रीकृष्ण नहीं टालेंगे और श्रीकृष्ण की आज्ञा का उल्लंघन युधिष्ठिर नहीं कर सकेंगे, ऐसा मेरा विश्वास है। राजन् ! मै इस संधि को ही तुम्हारे लिये कल्याणकारी मानता हूँ। पाण्डवों के साथ किये जाने वाले युद्ध को नहीं। मैं कायरता या प्राण-रक्षा भावना से यह सब नहीं कहता हूँ।। तुम मरणासन्न अवस्था में मेरी यह बात याद करोगे। शरद्वान् के पुत्र वृद्ध कृपाचार्य इस प्रकार विलाप करके गरम-गरम लंबी साँस खींचते हुए शोक और मोह के वशीभूत हो गये।
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