"महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 17 श्लोक 18-35": अवतरणों में अंतर
व्यवस्थापन (वार्ता | योगदान) छो (Text replacement - "पुरूष" to "पुरुष") |
व्यवस्थापन (वार्ता | योगदान) छो (Text replacement - "अवरूद्ध" to "अवरुद्ध") |
||
पंक्ति 6: | पंक्ति 6: | ||
इस प्रकार जब जीव शरीर का त्याग करता है, तब प्राणियों का शरीद उच्छवासहीन दिखायी देता है। उसमें गर्मी, उच्छवास, शोभा और चेतना कुंछ भी नहीं रह जाती। इस तरह जीवाम्तासे परित्यक्त उस शरीर को लोग मृत (मरा हुआ) कहते है। देहधारी जीव जिन इन्द्रियों के द्वारा रूप, रस आदि विषयों का अनुभव करता है, उनके द्वारा वह भोजन से परिपुष्ट होन वाले प्राणों को नहीं जान पाता। इस शरीर के भीतर रहकर जो कार्य करता है, वह सनातन जीव है। | इस प्रकार जब जीव शरीर का त्याग करता है, तब प्राणियों का शरीद उच्छवासहीन दिखायी देता है। उसमें गर्मी, उच्छवास, शोभा और चेतना कुंछ भी नहीं रह जाती। इस तरह जीवाम्तासे परित्यक्त उस शरीर को लोग मृत (मरा हुआ) कहते है। देहधारी जीव जिन इन्द्रियों के द्वारा रूप, रस आदि विषयों का अनुभव करता है, उनके द्वारा वह भोजन से परिपुष्ट होन वाले प्राणों को नहीं जान पाता। इस शरीर के भीतर रहकर जो कार्य करता है, वह सनातन जीव है। | ||
कहीं-कहीं संधिस्थानों में जो-जो अंग संयुक्त होता है, उस-उस को तुम मर्म समझो, क्योंकि शास्त्र में मर्मस्थान का ऐसा ही लक्षण देखा गया है। | कहीं-कहीं संधिस्थानों में जो-जो अंग संयुक्त होता है, उस-उस को तुम मर्म समझो, क्योंकि शास्त्र में मर्मस्थान का ऐसा ही लक्षण देखा गया है। | ||
उन मर्मस्थानों (संधियों)-के विलग होने पर वायु ऊपर को उठती हुई प्राण के हृदय में प्रविष्ट हो शीघ्र ही उसकी बुद्धि को | उन मर्मस्थानों (संधियों)-के विलग होने पर वायु ऊपर को उठती हुई प्राण के हृदय में प्रविष्ट हो शीघ्र ही उसकी बुद्धि को अवरुद्ध कर लेती है। | ||
तब अन्तकाल उपस्थित होने पर प्राणी सचेतन होने पर भी कुछ समझ नहीं पाता, क्योंकि तुम (अविद्या)- के द्वारा उसकी ज्ञानशक्ति आवृत्त हो जाती है। मर्मस्थान भी | तब अन्तकाल उपस्थित होने पर प्राणी सचेतन होने पर भी कुछ समझ नहीं पाता, क्योंकि तुम (अविद्या)- के द्वारा उसकी ज्ञानशक्ति आवृत्त हो जाती है। मर्मस्थान भी अवरुद्ध हो जाते है। उस समय जीव के लिये कोई आधार नहीं रह जाता है और वायु उसे अपने स्थान से विचलित कर देती है। | ||
तब वह जीवात्मा बारंबार भंयकर एवं लंबी साँस छोड़कर बाहर निकलने लगता है। उस समय सहसा इस जड शरीर को कम्पि कर देता है। | तब वह जीवात्मा बारंबार भंयकर एवं लंबी साँस छोड़कर बाहर निकलने लगता है। उस समय सहसा इस जड शरीर को कम्पि कर देता है। | ||
शरीर से अलग होनेपर वह जीव अपने किये हुए शुभ कार्य पुण्य अथवा अशुभ कार्य पाप कर्मो द्वारा सब ओर से घिरा रहता है। | शरीर से अलग होनेपर वह जीव अपने किये हुए शुभ कार्य पुण्य अथवा अशुभ कार्य पाप कर्मो द्वारा सब ओर से घिरा रहता है। |
07:53, 3 जनवरी 2016 का अवतरण
सप्तदश (17) अध्याय: आश्वमेधिक पर्व (अनुगीता पर्व)
द्विजश्रेष्ठ! मृत्युकाल में जीव का तन-मन वेदना से व्यथित होता हे, इस बात को भलीभाँति जान लो। इस तरह संसार के सभी प्राणी सदा जन्म और मरण से उद्विग्न रहता है। विप्रवर! सभी जीव अपने शरीरों का त्याग करते देखे जाते हैं। गर्भ में मनुष्य प्रवेश करते समय तथा गर्भ से नीचे गिरते समय भी वैसी ही वेदना का अनुभव करता है। मृत्यु काल में जीवों के शरीर की सन्धियाँ टूटने लगती हैं और जन्म के समय वह गर्भस्थ जल से भीगकर अत्यन्त व्याकुल हा उठाता है। अन्य प्रकार की तीव्र वायु से प्रेरित हो शरीर में सर्दी से कुपित हुई जो वायु पाँचों भूतों में प्राण और अपान के स्थान में स्थित है, वही पञ्चभूतों के संघात का नाश करती है तथा वह देहधारियों को बड़े कष्ट से त्यागकर ऊर्ध्वलोक को चली जाती है। इस प्रकार जब जीव शरीर का त्याग करता है, तब प्राणियों का शरीद उच्छवासहीन दिखायी देता है। उसमें गर्मी, उच्छवास, शोभा और चेतना कुंछ भी नहीं रह जाती। इस तरह जीवाम्तासे परित्यक्त उस शरीर को लोग मृत (मरा हुआ) कहते है। देहधारी जीव जिन इन्द्रियों के द्वारा रूप, रस आदि विषयों का अनुभव करता है, उनके द्वारा वह भोजन से परिपुष्ट होन वाले प्राणों को नहीं जान पाता। इस शरीर के भीतर रहकर जो कार्य करता है, वह सनातन जीव है। कहीं-कहीं संधिस्थानों में जो-जो अंग संयुक्त होता है, उस-उस को तुम मर्म समझो, क्योंकि शास्त्र में मर्मस्थान का ऐसा ही लक्षण देखा गया है। उन मर्मस्थानों (संधियों)-के विलग होने पर वायु ऊपर को उठती हुई प्राण के हृदय में प्रविष्ट हो शीघ्र ही उसकी बुद्धि को अवरुद्ध कर लेती है। तब अन्तकाल उपस्थित होने पर प्राणी सचेतन होने पर भी कुछ समझ नहीं पाता, क्योंकि तुम (अविद्या)- के द्वारा उसकी ज्ञानशक्ति आवृत्त हो जाती है। मर्मस्थान भी अवरुद्ध हो जाते है। उस समय जीव के लिये कोई आधार नहीं रह जाता है और वायु उसे अपने स्थान से विचलित कर देती है। तब वह जीवात्मा बारंबार भंयकर एवं लंबी साँस छोड़कर बाहर निकलने लगता है। उस समय सहसा इस जड शरीर को कम्पि कर देता है। शरीर से अलग होनेपर वह जीव अपने किये हुए शुभ कार्य पुण्य अथवा अशुभ कार्य पाप कर्मो द्वारा सब ओर से घिरा रहता है। जिन्होंने वेद-शास्त्रों के सिद्धांर्तो का यथावत् अध्ययन किया है, वे ज्ञान सम्पन्न ब्राह्मण लक्षणों के द्वारा यह जान लेते हैं कि अमुक जीव पुण्यात्मा रहा है। अमुक जीव पापी। जिस तरह आँखवाले मनुष्य अंधेरे में इधर-उधर उगते-बुझते हुए खद्योत को देखते हैं, उसी प्रकार ज्ञान-नेत्रवाले सिद्ध पुरुष अपनी दिव्य दृष्टि से जन्मते, मरते तथा गर्भ में प्रवेश करते हुए जीव को सदा देखते रहते हैं। शास्त्र के अनुसार जीव के तीन प्रकार के स्थान देखे गये हैं (मृत्युलोक, स्वर्णलोक और नरक)। यह मर्त्यलोक की भूमि जहाँ बहुत से प्राणी रहते हैं, कर्मभूमि कहलाती है। अत: यहाँ शुभ और अशुभ कर्म करके सब मनुष्य उसके फलस्वरूप अपने कर्मो के अनुसार अच्छे-बुरे भोग प्राप्त करते है।
« पीछे | आगे » |