महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 3 श्लोक 32-47

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तृतीय (3) अध्याय: भीष्म पर्व (जम्बूखण्‍डविनिर्माण पर्व)

महाभारत: भीष्म पर्व: तृतीय अध्याय: श्लोक 32-47 का हिन्दी अनुवाद

एक तिथि का क्षय होने पर चौदहवें दिन, तिथिक्षय न होने पर पंद्रहवें दिन और एक तिथि की वृद्धि होने पर सोलहवें दिन अमावास्‍या का होना तो पहले देखा गया है; परंतु इस पक्षमें जो तेरहवें दिन यह अमावास्‍या आ गयी है, ऐसा पहले भी कभी हुआ है, इसका स्‍मरण मुझे नहीं है। इस एक ही महीने में तेरह दिनों के भीतर चन्‍द्रग्रहण और सूर्य-ग्रहण दोनों लग गये। इस प्रकार अप्रसिद्ध पर्व में ग्रहण लगने के कारण सूर्य और चन्‍द्रमा प्रजा का विनाश करने वाले होंगे। कृष्‍ण पक्ष की चतुर्दशी को बडे़ जोर से मांस की वर्षा हुई थी। उस समय राक्षसों का मुंह भरा हुआ था। वे खून पीते अघाते नहीं थे। बड़ी-बड़ी नदियों के जल रक्‍त के समान लाल हो गये हैं और उन की धारा उल्‍टे स्‍त्रोत की ओर बहने लगी है। कुंओं-से फेन ऊपर को उठ रहे हैं, मानो वृषभ उछल रहे हों। बिजली की कड़कड़ के साथ इन्द्र की अशनि के समान प्रकाशित होने वाली उल्काएं गिर रही हैं। आज की रात बीतने पर सबेरे से ही तुम लोगों को अपने अन्याय का फल मिलने लगेगा। सम्पूर्ण दिशाओं में अन्धकार व्याप्त होने के कारण बड़ी-बड़ी मशालें जलाकर घर से निकले हुए महर्षियों ने एक दूसरे के पास उपस्थित हो इन उत्पातों के सम्बन्ध में अपना मत इस प्रकार प्र‍कट किया हैं। जान पड़ता है, यह भूमि सहस्त्रों भूमिपालों का रक्तापान करेगी। प्रभो! कैलास, मन्दराचल तथा हिमालय से सहस्त्रों प्रकार के अत्यन्त भयानक शब्द प्रकट होते हैं और उनके शिखर भी टूट-टूटकर गिर रहे हैं। भूकम्प होने के कारण पृथक्-पृथक् चारों सागर वृद्धि को प्राप्त होकर वसुधा में क्षोभ उत्पन्न करते हुए अपनी सीमा को लांघते हुए से जान पड़ते हैं। बालू और कंकड़ खींचकर बरसाने वाले भयानक बवंडर उठकर वृक्षो को उखाडे़ डालते १हैं। गांवों तथा नगरों में वृक्ष और चैत्यवृक्ष प्रचण्‍ड आंधियों तथा बिजली के आघातों से टूटकर गिर रहे हैं। ब्राह्मणलोगों के आहुति देनेपर प्रज्वलित हुई अग्नि काले, लाल और पीले रंग की दिखायी देती हैं। उसकी लपटें वामावर्त होकर उठ रही हैं। उससे दुर्गन्ध निकलती है और वह भयानक शब्द प्रकट करती रहती हैं। राजन्! स्पर्श, गन्ध तथा रस- इन सबकी स्थि‍ति विपरीत हो गयी हैं। ध्‍वज बारंबार कम्पित होकर धूआं छोड़ते है। ढोल, नगाडे़ अङ्गारों की वर्षा करते हैं। फल-फूल से सम्पन्न वृक्षों की शिखाओं पर बायीं ओर से घूम-घूमकर सब ओर कौए बैठते हैं और भयंकर कांव-कांव का कोलाहल करते हैं। बहुत-से पक्षी ‘पक्वा-पक्वा’ इस शब्द का बारंबार जोर-जोर से उच्चारण करते और ध्‍वजाओं के अग्रभाग में छिपते हैं। यह लक्षण राजाओं के विनाश का सूचक हैं। दुष्‍ट हाथी कांपते ओर चिन्ता करते हुए भय के मारे मल-मूत्र त्याग कर रहे हैं,घोडे़ अत्यन्त दीन हो रहे हैं और सम्पूर्ण गजराज पसीने-पसीने हो रहे हैं। भारत! यह सुनकर (और उसके परिणाम पर विचार करके) तुम इस अवसर के अनुरूप ऐसा कोई उपाय करो, जिससे यह संसार विनाश से बच जाय।

वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय! अपने पिता व्यासजी का यह वचन सुनकर धृमराष्‍ट्र ने कहा- ‘भगवन्! मैं तो इसे पूर्वनिश्चित दैव का विधान मानता हुं; अत: यह जनसहार होगा ही।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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