महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 112 श्लोक 39-57

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द्वादशाधिकशततम (112) अध्याय: द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)

महाभारत: द्रोण पर्व: द्वादशाधिकशततम अध्याय: श्लोक 39-57 का हिन्दी अनुवाद


‘काल से प्रेरित हुआ दुर्योधन इन समस्‍त राजाओं के समुदाय को तथा रथियों में श्रेष्‍ठ द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, भूरिश्रवा, जयद्रथ और कर्ण को पाकर पाण्‍डवों का अपमान करते हैं तथा अपने आप को कृतार्थ मान रहा है। ‘कुन्‍तीनन्‍दन ! वे सब लोग आज मेरे नाराचों के लक्ष्‍य बने हुए हैं। वे मन के समान वेगशाली हो तो भी मेरे हाथों से छूट नहीं सकेगे। ‘दुसरों के बल पर जीने वाले दुर्यो्धन ने इन सब लोगों का सदा आदरपूर्वक भरण-पोषण किया हैं; परंतु ये मेरे बाण-समूहों से पीड्ति होकर आज विनष्‍ट हो जायंगें। ‘राजन् ! ये जो सोने की ध्‍वजावाले रथी दिखायी देते हैं, ये दुर्वारण नामवाले काम्‍बोज सैनिक हैं ।आपने इनका नाम सुना होगा। ‘ये शूर, विद्वान् तथा धनुर्वेद में परिनिष्ठित हैं। इनमें परस्‍पर बड़ा संगठन हैं। ये एक दूसरे का हित चाहनेवाले हैं।। ‘भरतनन्‍दन ! दुर्योधन की क्रोध में भरी हुई ये कई अक्षौहिणी सेनाएं कौरव वीरों से सुरक्षित हो मेरे लिये तैयार खड़ी हैं।महाराज ! ये सब सावधान होकर मुझपर ही आक्रमण करने वाली हैं। ‘परंतु जैसे आग तिनकों को जला डालती हैं, उसी प्रकार मैं उन समझ कौरव-सेनिकों को मथ डालूंगा। अत: राजन् ! रथ को सुसज्जित करनेवाले लोग आज मेरे रथ पर यथावत् रुप से भरे हुए तरकसों तथा अन्‍य सब आवश्‍यक उपकरणों को रख दें।। ‘इस संग्राम में नाना प्रकार के आयुधों का उसी प्रकार संग्रह कर लेना चाहियें, जैसा कि आचार्यो ने उपदेश किया है। रथ पर रक्‍खी जानेवाली युद्धसामग्री पहले से पांचगुनी कर देनी चाहिये। ‘आज मैं विषधर सर्प के समान क्रूर स्‍वभाववाले उन काम्‍बोज-सैनिकों के साथ युद्ध करुंगा, जो नाना प्रकार के शस्‍त्रसमुदायों से सम्‍पन्‍न और भांति-भांति के आयुधों द्वारा युद्ध करने में कुशल हैं। ‘दुर्योधन का हित चाहनेवाले और विष के समान घातक उनप्रहार कुशल किरात-योद्धाओं केसाथ भी संग्राम करुंगा, जिनका राजा दुर्योधन नेसदा ही लालन-पालन किया है।। ‘प्रज्‍वलित अग्नि के समान तेजस्‍वी, दुर्घर्ष एवं इन्‍द्र के ‘राजन् ! इनके सिवा और भी जो नाना प्रकार के बहुसंख्‍यक युद्धदुर्भद, काल के तुल्‍य भयंकर तथा दुर्जय योद्धा हैं, रणक्षेत्र में उन सब का सामना करुंगा।‘इसलिये उतम लक्षणों से सम्‍पन्‍न श्रेष्‍ठ घोड़े, जो विश्राम कर चुके हों, जिन्‍हें टहलाया गया हों और पानी भी पिला दिया गया हों, पुन: मेरे रथ में जोते जायें,। संजय कहते हैं-महाराज ! तदनन्‍तर राजा युधिष्ठिर ने सात्‍यकि के रथ पर भरे हुए सारे तरकतीं, समस्‍त उपकरणों तथा भांति-भांति के शस्‍त्रों को रखवा दिया। तदन्‍तर सब प्रकार से सुशिक्षित उन चारों उतम घोड़ों को सेवकों ने मदमत बना देनेवाला रसीला पेय पदार्थ पिलाया। जब वेपी चुके तो उन्‍हें टहलाया और नहलाया गया। उसके बाद दाना और चारा खिलाया गया। फिर उन्‍हें सब प्रकार से सुसज्जित किया गया। उनके अंगों में गड़े हुए बाण पहले ही निकाल दिये गये थे। वे चारों घोड़े सोने की मालाओं से विभूषित थे। उन योग्‍य अश्‍वों की कान्ति सुवर्ण के समान थी। वे सुशिक्षित और शीघ्रगामी थे। उनके मन में हर्ष और उत्‍साह था। तनिक भी व्‍यग्रता नही थी। उन्‍हें विधि‍पूर्वक सजाया गया था। स्‍वर्णमय अलंकारोंसे अलकृत उन अश्‍वों को सारथि ने रथ में जोता। वह रथ सुवर्णमय केशरो से सशोभित सिंह के चिहवाले विशाल ध्‍वज से सम्‍पन्‍न था। मणियों और मूंगों से चित्रित सोने की शलाकाओं से शोभायमान एवं श्‍वेत पताकाओं से अलंकृत था। उस रथ के उपर स्‍वर्णमय दण्‍ड से विभूषित छत्र सना हुआ था तथा रथ की भीतर नाना प्रकार के शस्‍त्र तथा अन्‍य आवश्‍यक सामान रक्‍खें गये था।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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