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*[[ॠग्वेद]] में वर्णित एक ब्रह्मवादिनी स्त्री जो [[अत्रि]] ॠषि की पुत्री थीं।
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*महर्षि [[अत्रि]] की कन्या का नाम अपाला था।
*कुष्ट रोग से पीड़ित हो जाने पर यह अपने पिता की आज्ञा से [[इन्द्र]] को प्रसन्न करने के लिए तप करने लगी।
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*अपाला एक अत्यंत ही मेधाविनी कन्या थी।
*सोम को इन्द्र की प्रिय वस्तु जानकर इसने नदी के किनारे उसे खोज लिया।
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*अत्रि अपने शिष्यों को जो कुछ भी पढ़ाते थे, एक बार सुनकर ही अपाला वह सब स्मरण कर लेती थी।
*इन्द्र ने अपाला से सोम प्राप्त किया और उसे आशीर्वाद दिया।
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*अत्यन्त कुशाग्रबुद्धि होने पर भी वह अत्रि की चिन्ता का कारण थी, क्योंकि उसे चर्म रोग था।
*इससे उसका कुष्ट रोग दूर हो गया। साथ ही पिता का गंजापन भी मिट गया।
 
  
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*इस चर्म रोग के कारण ही ऋषि अत्रि अपाला का विवाह नहीं कर पा रहे थे।
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*एक बार ऋषि के आश्रम में ब्रह्मवेत्ता कृशाश्व आये। उन्होंने युवती अपाला से विवाह करना स्वीकार कर लिया।
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*यौवन ढलने पर अपाला के सौंदर्य की कान्ति नष्ट होने लगी और चर्म का श्वेतकुष्ट अधिकाधिक उभर आया।
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*कुशाश्व ने अपाला का परित्याग कर दिया। वह पुन: पिता अत्रि के आश्रम में चली आई।
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*अपने पिता [[ऋषि]] अत्रि के आदेशानुसार अपाला ने तपस्या की तथा [[इंद्र]] का आहवान कर सोमरस समर्पित किया।
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*सोमलता को कूटने के लिए कोई पत्थर नहीं था, अत: अपाला ने अपने दाँतों के घर्षण से सोमरस निकालकर इंद्र को समर्पित किया।
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*इंद्र ने प्रसन्न होकर वर माँगने के लिए कहा।
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*अपाला ने सुलोमा बनने की इच्छा प्रकट की।
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*इंद्र ने अपने रथ के छिद्र से अपाला का शरीर तीन बार निकाला, जिससे अपाला की त्वचा तीन बार उतरी।
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*पहली अपहृत त्वचा 'शल्यक' (खपची, काँटा) बन गई, दूसरी 'गोधा' और तीसरी अपहृत त्वचा कृकलास बनी।
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*इस प्रकार अपाला का कुष्ट पूर्ण रूप से ठीक हो गया।
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*कथा में आया है कि अपाला के शरीर से उतरने वाली त्वचा से 'शल्यक' (सेही), 'गोधा' (गोह) और 'कृकलास' (गिरगिट) जैसे जन्तु बन गये, लेकिन वैद्यक में शल्यक का अर्थ मदन वृक्ष और कृकला का अर्थ पिप्पली है।
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==संबंधित लेख==
 
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08:15, 11 मई 2011 का अवतरण

  • महर्षि अत्रि की कन्या का नाम अपाला था।
  • अपाला एक अत्यंत ही मेधाविनी कन्या थी।
  • अत्रि अपने शिष्यों को जो कुछ भी पढ़ाते थे, एक बार सुनकर ही अपाला वह सब स्मरण कर लेती थी।
  • अत्यन्त कुशाग्रबुद्धि होने पर भी वह अत्रि की चिन्ता का कारण थी, क्योंकि उसे चर्म रोग था।
  • इस चर्म रोग के कारण ही ऋषि अत्रि अपाला का विवाह नहीं कर पा रहे थे।
  • एक बार ऋषि के आश्रम में ब्रह्मवेत्ता कृशाश्व आये। उन्होंने युवती अपाला से विवाह करना स्वीकार कर लिया।
  • यौवन ढलने पर अपाला के सौंदर्य की कान्ति नष्ट होने लगी और चर्म का श्वेतकुष्ट अधिकाधिक उभर आया।
  • कुशाश्व ने अपाला का परित्याग कर दिया। वह पुन: पिता अत्रि के आश्रम में चली आई।
  • अपने पिता ऋषि अत्रि के आदेशानुसार अपाला ने तपस्या की तथा इंद्र का आहवान कर सोमरस समर्पित किया।
  • सोमलता को कूटने के लिए कोई पत्थर नहीं था, अत: अपाला ने अपने दाँतों के घर्षण से सोमरस निकालकर इंद्र को समर्पित किया।
  • इंद्र ने प्रसन्न होकर वर माँगने के लिए कहा।
  • अपाला ने सुलोमा बनने की इच्छा प्रकट की।
  • इंद्र ने अपने रथ के छिद्र से अपाला का शरीर तीन बार निकाला, जिससे अपाला की त्वचा तीन बार उतरी।
  • पहली अपहृत त्वचा 'शल्यक' (खपची, काँटा) बन गई, दूसरी 'गोधा' और तीसरी अपहृत त्वचा कृकलास बनी।
  • इस प्रकार अपाला का कुष्ट पूर्ण रूप से ठीक हो गया।
  • कथा में आया है कि अपाला के शरीर से उतरने वाली त्वचा से 'शल्यक' (सेही), 'गोधा' (गोह) और 'कृकलास' (गिरगिट) जैसे जन्तु बन गये, लेकिन वैद्यक में शल्यक का अर्थ मदन वृक्ष और कृकला का अर्थ पिप्पली है।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

विद्यावाचस्पति, डॉ. उषा पुरी भारतीय मिथक कोश, द्वितीय संस्करण (हिन्दी), भारत डिस्कवरी पुस्तकालय: नेशनल पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली, 12।

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