राग बिहाग
माई म्हारी हरिजी न बूझी बात[1]।
पिंड मांसूं[2] प्राण पापी निकस क्यूं नहीं जात॥
पट न खोल्या मुखां न बोल्या[3], सांझ भई परभात।
अबोलणा[4] जु बीतण लागो, तो काहे की कुशलात॥
सावण[5] आवण होय रह्यो रे, नहीं आवण की बात।
रैण अंधेरी बीज[6] चमंकै, तारा गिणत निसि जात॥
सुपन में हरि दरस दीन्हों, मैं न जान्यूं हरि जात[7]।
नैण म्हारा उघण आया[8], रही मन पछतात॥
लेइ कटारी कंठ चीरूं, करूंगी अपघात।
मीरा व्याकुल बिरहणी रे, काल ज्यूं बिललात[9]॥