सखी, मेरी नींद नसानी हो।
पिवको पंथ निहारत सिगरी रैण बेहानी[1] हो॥
सखिअन मिलकर सीख दई मन, एक न मानी[2] हो।
बिन देख्यां कल नाहिं पड़त जिय ऐसी ठानी हो॥
अंग अंग व्याकुल भई मुख पिय पिय बानी हो।
अंतर बेदन[3] बिरह की कोई पीर न जानी हो॥
ज्यूं चातक घनकूं रटै, मछली जिमि पानी हो।
मीरा व्याकुल बिरहणी सुद बुध बिसरानी[4] हो॥