भक्तिकालीन साहित्य में मीरां

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भक्तिकालीन साहित्य में मीरां
मीरां
मीरां
पूरा नाम मीरांबाई
जन्म 1498
जन्म भूमि मेड़ता, राजस्थान
मृत्यु 1547
अभिभावक रत्नसिंह
पति/पत्नी कुंवर भोजराज
कर्म भूमि वृन्दावन
मुख्य रचनाएँ बरसी का मायरा, गीत गोविंद टीका, राग गोविंद, राग सोरठ के पद
विषय कृष्णभक्ति
भाषा ब्रजभाषा
नागरिकता भारतीय
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मीरांबाई की रचनाएँ

मध्यकालीन भक्ति काव्यधारा में मीरांबाई के पदों का विशिष्ट स्थान है। ये पद अपनी मार्मिकता एवं मधुरिमा के कारण इतने लोकप्रिय हुए हैं कि हिन्दी-भाषा-भाषियों ने भी इन्हें आत्मसात् कर लिया है। बंगाल से लेकर गुजरात तक और दक्षिण के महाराष्ट्र से लेकर तमिलनाडु तक इन गीतों का प्रचलन जन-जन में हैं। इन पदों के जो संस्करण इसके पूर्व उपलब्ध थे, उनसे अध्येताओं की आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं हो पाती थी। हिन्दी साहित्य के प्रतिष्ठित विद्वान् आचार्य परशुराम चतुर्वेदी ने शोधपूर्ण भूमिका के साथ-साथ अध्ययनशील विद्यार्थियों की सुविधा के लिए उपयोगी परिशिष्ट जोड़े हैं।

मीरां के पद

मीरांबाई की महानता और उनकी लोकप्रियता उनके पदों और रचनाओं की वजह से भी है। ये पद और रचनाएँ राजस्थानी, ब्रज और गुजराती भाषाओं में मिलते हैं। हृदय की गहरी पीड़ा, विरहानुभूति और प्रेम की तन्मयता से भरे हुए मीराबाई के पद अनमोल संपत्ति हैं। आँसुओं से भरे ये पद गीतिकाव्य के उत्तम नमूने हैं। मीराबाई ने अपने पदों में 'श्रृंगार रस' और 'शांत रस' का प्रयोग विशेष रूप से किया है।

मैं तो गिरधर के रंग राती
सखी री मैं तो गिरधर के रंग राती॥
पचरंग मेरा चोला रंगा दे, मैं झुरमुट खेलन जाती॥
झुरमुट में मेरा सांई मिलेगा, खोल अडम्बर गाती॥
चंदा जाएगा, सुरज जाएगा, जाएगा धरण अकासी।
पवन पाणी दोनों ही जाएंगे, अटल रहे अबिनासी॥
सुरत निरत का दिवला संजो ले, मनसा की कर बाती।
प्रेम हटी का तेल बना ले, जगा करे दिन राती॥
जिनके पिय परदेश बसत हैं, लिखि लिखि भेजें पाती॥
मेरे पिय मो माहिं बसत है, कहूं न आती जाती॥
पीहर बसूं न बसूं सासघर, सतगुरु सब्द संगाती।
ना घर मेरा ना घर तेरा, मीरा हरि रंग राती॥

भावार्थ

इस पद के माध्यम से मीराबाई ने कृष्णभक्ति की अप्रतिम भावनाओं को व्यक्त किया है। आत्मा-परमात्मा के मिलन को वह बहुत सहज ढंग से व्यक्त करती है। मीराबाई कहती-सुनो सखी! आत्मा पांच आंतरिक धुनों के रंग में रंगा चोला पहनकर नेत्रों के केंद्र रूपी झुरमुट में खेलने जाती है। कर्मकांड और बाहरी क्रियाओं के वस्त्र उसके अंतर में जाने की राह में बाधाएं उत्पन्न करते हैं। उन्हें वह उतार फेंकती है। फिर अवश्य ही हरि को ढूंढ लेती हे। पांचों तत्व, सूर्य, चंद्र और तारामंडल से भी आगे आत्मा दैवीय मंडलों में भ्रमण करने लगेगी। परमात्मा आत्मा के रूप में निज-शरीर में ही वास करता है। वह प्रेम के दीपक के प्रकाश से ही अंतर में प्रकट होता है। मीराबाई कहती है कि जिनके पति परदेश बसते हैं उनकी प्रियतमा पत्र के माध्यम से संदेश भेजा करती है लेकिन मेरे प्रियतम (परमात्मा) तो मेरे मन (आत्मा) में ही बसते हैं, कहीं आते-जाते नहीं।

प्यारे दर्शन दीजो आय
प्यारे दर्शन दीजो आय, तुम बिन रह्ययो न जाय।
जल बिन कमल, चंद बिन रजनी, ऐसे तुम देख्यां बिन सजनी॥
आकुल व्याकुल फिरूं रैन दिन, विरह कलेजा खाय॥
दिवस न भूख नींद नहिं रैना, मुख के कथन न आवे बैनां॥
कहा करूं कुछ कहत न आवै, मिल कर तपत बुझाय॥
क्यों तरसाओ अतंरजामी, आय मिलो किरपा कर स्वामी।
मीरा दासी जनम जनम की, परी तुम्हारे पायं॥

भावार्थ

विरह वेदना में तडपती मीरा हरि के दर्शन को उतावली है। बिना हरि दर्शन के वह हमेशा बेचैन रहती है। प्रभु के दर्शन की इच्छा ने उसकी भूख, प्यास और नींद भी छीन ली है। मीरा समझ नहीं रही कि कैसे वह अपनी व्यथा का वर्णन करे। गिरधारी से क्या छिपा है। मीरा याचक बनकर कहती है कि हे प्रभु! मेरे दु:ख और संताप को देखकर अब तो चले आओ।

आवन की मनभावन की
कोई कहियौ रे प्रभु आवन की, आवन की मन भावन की।
आप न आवै लिख नहिं भेजै, बांण पडी ललचावन की।
ऐ दोई नैणा कह्यौ नहिं मानैं, नदियां बहै जैसे सावन की।
कहा करूं कछु नहिं बस मेरो, पांख नहिं उड जावन की।
मीरा कहै प्रभु कब रै मिलोगे, चेरी भई हूँ तेर दावंण की॥

भावार्थ

मीरा अपने प्रीतम श्रीकृष्ण की याद में तडप रही है। वह कहती है कि हे ईश्वर न तो स्वयं आप मेरी- सुधि लेते हैं और न ही कोई संदेश भेजते हैं। मुझे प्रतीत होता है कि आपको मुझे सताने की आदत सी पड गई है। मीरा कहती है कि उसका कोई वश नहीं चलता है। पंख होता तो अपने प्रियतम से मिलने के लिये उडकर चली आती।

चरण कंवल अवणासी
भज मन चरण कंवल अवणासी।
जेताई दीसां धरण गगन मां, तेताई उठ जासी।
तीरथ बरतां ग्यांण कथंता, कहा लियां करवत कासी।
यो देही रो गरब णा करणा माटी मां मिल जासी।
यो संसार चहर री बाजी, सांझ पड्यां उठ जासी।
कहां भयां थां भगवां पहर्यां, घर तज लयां संन्यासी।
जोगी होयां जुगत णां जाणा, उलट जणम फिर फाँसी।
अरज करा अबला कर जोरया, स्याम तुम्हारी दासी।
मीरा रे प्रभु गिरधरनागर, काट्यां म्हारो गांसी॥

भावार्थ

मीराबाई जगत् की मिथ्या से पूरी तरह परिचित थीं। ईश्वर को एकमात्र सहारा मानने वाली मीराबाई कहती हैं कि-हे मेरे मन, तू निरंतर अविनाशी के चरणकमलों की वंदना कर। इस धरती व गगन में जो कुछ दीख रहा है, वह सब नाशवान है। तीर्थयात्राएं, व्रत या ज्ञान चर्चा करना अथवा काशी में जाकर आश्रय लेना व्यर्थ है। बस, मन से वंदना करना ही पर्याप्त है। इस देह पर कभी गर्व मत करना, यह तो एक दिन मिट्टी में मिल जानी है। इस संसार को तो यों जान, जैसे यह चिडिया की बाजी (खेल) हो, जिसे सांझ पडते ही उड जाना है। क्या हुआ जो तूने भगवा धारण कर लिया या घर त्याग कर सन्न्यास ले लिया। इससे मुक्ति नहीं मिलती, मुक्ति के लिए मन से वंदना करना ही पर्याप्त है। ऐसे जोगी होने का क्या तुक कि सिद्धि की विधि ही नहीं जानी जा सके और जन्म-जन्मांतर के आवागमन की फाँसी गले में लगी रहे। हे श्याम! मैं तुम्हारी दासी हूँ, मुझ पर दया दृष्टि बनाए रखना। हे मीरा के प्रभु गिरधरनागर! तुम्हीं दुनियादारी के बंधनों को काट कर मुझे मुक्त कर देना।

राम नाम रस पीजै
राम नाम रस पीजै, राम नाम रस पीजै।
तज कुसंग सतसंग बैठ नित, हरि चरचा सुण लीजै।
काम क्रोध मद लोभ मोह कूं बहा चित्त से दीजै।
मीरा रे प्रभु गिरधरनागर, ताहि के रंग भीजै॥

भावार्थ

मीरा जन-जन को परामर्श देती है कि तुम राम नाम का रस पियो, इसका बडा चमत्कारी परिणाम होता है। नित्य कुसंगत का त्याग करके सत्संग में जाकर बैठो और हरि चर्चा सुनकर जीवन को सार्थक बनाओ। चित्त में काम, क्रोध, मद, लोभ और मोह की जो कुप्रवृतियां घर कर गई हैं, उनको वहाँ से बहाकर निर्मल हो जाओ। हे मीरा के प्रभु गिरधरनागर! मैं तो तुम्हारे रंग में भीग गई हूँ।

दरद न जाण्यां कोय
हेरी म्हां दरदे दिवाणी म्हारां दरद न जाण्यां कोय।
घायल री गत घाइल जाण्यां, हिवडो अगण संजोय।
जौहर की गत जौहरी जाणै, क्या जाण्यां जिण खोय।
दरद की मार्यां दर दर डोल्यां बैद मिल्या नहिं कोय।
मीरा री प्रभु पीर मिटांगां जब बैद सांवरो होय॥

भावार्थ

भगवान् के प्रेम में व्याकुल होकर मीराबाई कहती हैं कि- हे सखी! मुझसे विरह की पीडा सही नहीं जाती। मैं विरह के मारे दीवानी हुई जा रही हूँ किंतु मेरे दर्द को कोई समझ नहीं पाता। इसे तो वही समझ सकता है, जिसके हृदय में विरहाग्नि सुलग रही हो। मुझ घायल की गति तो कोई घायल ही समझ सकता है। जौहरी ही रत्‍‌न का मूल्यांकन कर सकता है, वह क्या करेगा जिसने अपना रत्‍‌न गंवा दिया हो। मैं वियोग में दर्द की मारी-मारी दर-दर डोल रही हूँ, किंतु ऐसा कोई वैद्य नहीं मिला जो मेरा इलाज कर सके। हे मीरा के प्रभु! मेरी पीडा तो तभी मिटेगी जब मेरा सांवरा वैद्य कृष्ण आकर मेरा इलाज करेगा।

हरि नाम लौ लागी
अब तो हरि नाम लौ लागी।
सब जग को यह माखनचोर, नाम धर्यो बैरागी।
कहं छोडी वह मोहन मुरली, कहं छोडि सब गोपी।
मूंड मुंडाई डोरी कहं बांधी, माथे मोहन टोपी।
मातु जसुमति माखन कारन, बांध्यो जाको पांव।
स्याम किशोर भये नव गोरा, चैतन्य तांको नांव।
पीताम्बर को भाव दिखावै, कटि कोपीन कसै।
दास भक्त की दासी मीरा, रसना कृष्ण रटे॥

भावार्थ

मीराबाई कहती हैं कि- अब तो मैंने हरि के नाम से लगन लगा ली है। सारे जग में वह माखनचोर के नाम से विख्यात है जबकि उसे वैरागी कहा जाता है। पता नहीं वह अपनी मोहक मुरली कहाँ छोड आया और उसकी सारी गोपियां कहा गई। सिर मुंडवा कर न जाने कहाँ डोर बांधी, अब माथे पर मन मोहने वाली टोपी भी नहीं है। कभी वह खूब माखन चुराता था, इस कारण माता यशोमती उसके पांव बांधती थी। वही श्याम किशोर अब गोरे हो गए और उनका नाम चैतन्य हो गया। उनके पीतांबर को भाव दिखाकर कमर पर कौपीन (लंगोटी) कस लिया। मीरा तो भक्तों के दास हरि की दासी है, मेरी जिह्वा सदा उसी का नाम रटती है।

राम रतन धन पायो
पायो जी म्हे तो रामरतन धन पायो। ...पूरा पढ़ें

भावार्थ

भक्ति की महिमा का गुणगान करते हुये मीराबाई कहती हैं कि - मैंने तो रामनाम के रत्‍‌नों का धन पा लिया। मेरे सतगुरु ने मुझे कृपापूर्वक यह अनमोल वस्तु प्रदान की है जिसे मैंने खुशी-खुशी अपना लिया। जनम-जनम की पूँजी क्या पा गई हूँ कि जग की सारी मोह-माया न जाने कहां लुप्त हो गई। यह पूँजी कभी खर्च नहीं होगी और न ही कोई चोर उठा कर ले जाएगा, बल्कि दिन ब दिन इसमें सवाया वृद्धि होती है। सत्य की नाव का खेवनहार सतगुरु होता है, इस प्रकार मैंने भवसागर पार कर लिया। हे मीरा के प्रभु गिरधरनागर! तुम्हारी माया अपरंपार है। तुम्हारा यशगान करते हुए मैं अत्यंत हर्षित होती हूँ।

हरि चरणन की चेरी
पलक न लागै मेरी स्याम बिना।
हरि बिनू मथुरा ऐसी लागै, शशि बिन रैन अंधेरी।
पात पात वृन्दावन ढूंढ्यो, कुंज कुंज ब्रज केरी।
ऊंचे खडे मथुरा नगरी, तले बहै जमना गहरी।
मीरा रे प्रभु गिरधरनागर, हरि चरणन की चेरी।

भावार्थ

मीराबाई कहती हैं कि - हे मेरे श्याम! तुझसे ऐसी लगन लगी है कि तेरे वियोग में मेरी पलकें एक पल को भी नहीं झपकतीं। हरि के बिना मुझे मथुरा नगरी ऐसी लगती है जैसे चंद्र के बिना रात को अंधेरा छा गया हो। मैंने वृंदावन जाकर पत्ते-पत्ते में उसे ढूंढा और ब्रज जाकर कुंज-कुंज में झांक लिया, मगर वह मुझे कहीं भी नहीं मिला। मथुरा नगरी ऊंचाई पर खडी है और उसके नीचे गहरी यमुना नदी बह रही है। हे मीरा के प्रभु गिरधरनागर! मैं तो हरि के चरणों की दासी हूँ, अत: मुझे दर्शन देकर कृतार्थ करो।

म्हारा जीवन प्राण अधार
हरि म्हारा जीवन प्राण अधार।
और आसिरो णा म्हारा थें बिण, तीनूं लोक मंझार।
थें बिण म्हाणो जग ण सुहावां, निरख्यां सब संसार।
मीरा रे प्रभु दासी रावली, लीज्यो णेक णिहार॥

भावार्थ

मीरा इस सत्य को भरीभाँति जानती थी कि ईश्वर ही सभी जीवों के प्राण के आधार हैं। वह कहती है कि मेरे हरि, तू ही मेरे जीवन व प्राण का आधार है, तेरे बिना मैं निराश्रित हूँ। सच कहती हूँ, इन तीन लोकों में तुम्हारे बिना मेरा कोई अन्य आसरा है ही नहीं, तुम्हारे बिना मुझे यह जग नहीं सुहाता। मैंने सारा संसार देख लिया, एक तुम्हीं मेरे सर्वस्व हो, अन्यत्र कहीं मन नहीं लगता। हे मीरा के प्रभु गिरधरनागर! यह दासी केवल तुम्हारी है, अत: मेरा हाल-चाल लेने के लिये मेरी ओर भी निहार लेना।

हरि बिन कछू न सुहावै
परम सनेही राम की नीति ओलूंरी आवै।
राम म्हारे हम हैं राम के, हरि बिन कछू न सुहावै।
आवण कह गए अजहुं न आये, जिवडा अति उकलावै।
तुम दरसण की आस रमैया, कब हरि दरस दिलावै।
चरण कंवल की लगनि लगी नित, बिन दरसण दु:ख पावै।
मीरा कूं प्रभु दरसण दीज्यौ, आंणद बरण्यूं न जावै॥

भावार्थ

मीराबाई कहती है कि-परमस्नेही की रीति-नीति की मुझे बहुत याद आती है। राम हमारा और हम राम के हैं, एक-दूसरे के एकदम अभिन्न। सच तो यह है कि हरि के बिना कुछ भी नहीं सुहाता। मुझसे आने की कह गए थे, किंतु समझ में नहीं आता, अब तक क्यों नहीं आए। उनके बिना हृदय बहुत आकुल रहता है। मेरे रमैया, तुम्हारे दर्शनों की आस में हूँ, पता नहीं हरि कब दर्शन दिलाएंगे। नित्य चरणकमल से लगन लगाए बैठी हूँ और तुम्हारे दर्शन के बिना दु:ख पा रही हूँ। हे मीरा के प्रभु! दर्शन दो, तुम्हारे दर्शन से जो आनंद मिल सकता है, उसका मैं बखान नहीं कर सकती।

होली खेल्या स्याम संग
रंग भरी राग भरी रागसूं भरी री।
होली खेल्या स्याम संग रंग सूं भरी, री।
उडत गुलाल लाल बदला रो रंग लाल, पिचकां उडावां।
रंग रंग री झरी, री।
चोवा चन्दण अरगजा म्हा, केसर णो गागर भरी री।
मीरा दासी प्रभु गिरधरनागर, चेरी चरण धरी री।

भावार्थ

मीराबाई अपने प्रियतम श्रीकृष्ण के साथ होली खेलना चाहती है। उनकी इच्छा है कि रंग, रास और प्रीत भरी मैं श्याम के संग होली खेलूं और रंगों से नहाऊं। चतुर्दिक लाल गुलाल उड रहा है और बादलों का रंग भी लाल हो गया है पिचकारियों से रंग उड रहे हैं। जहाँ देखो, वहाँ रंग-ही-रंग की झडी लगी हुई है। मेरी गागर में चोवा, चंदन, अरगजा और केसर की सुंगधियां भरी हुई हैं। मीरा तो गिरधरनागर की दासी है। इस दासी ने तेरे चरणों की शरण ली है। प्रभु अपनी कृपादृष्टि बनाए रखना।

कोई कहै कुलनासी
मेरे मन राम बसी।
तेरे कारण स्याम सुन्दर, सकल जोगां हांसी।
कोई कहै मीरा भई बावरी, कोई कहै कुलनासी।
कोई कहै मीरा दीप आग री, नाम पिया सूं रासी।
खांड धार भक्ति की न्यारी, काटी है जम की फाँसी॥

भावार्थ

मीरा कहती हैं-मेरे मन में राम बसा हुआ है। मेरे श्यामसुंदर, तेरे कारण जग वाले मेरी हंसी उडाते हैं। कोई कहता फिरता है कि मीरा बावरी हो गई है तो कोई यहाँ तक कह देता है कि मीरा कुल-नाशी है। कोई कहता है कि मीरा अग्नि की भाँति दहक रही है। जिसको जो कहना है कहता रहे, मैं तो अपने पिया का नाम लेने में ही लीन हूँ। यह जो भक्ति की तलवार की धार है, उसकी शान निराली है। यही यम के फंदे से सदैव के लिए मुक्ति दिला देती है अर्थात् मोक्ष प्राप्त कराती है।

होरी खेलत है गिरधारी
होरी खेलत है गिरधारी। ...पूरा पढ़ें

भावार्थ

कृष्ण की अप्रतिम भक्ति से ओतप्रोत मीरा अपने प्रियतम के होली खेलने का आनंद ले रही है। वह कहती हैं-मेरा गिरधारी होली खेल रहा है। मुरली, चंग और डफ के निराले स्वर गूंज रहे हैं, इनकी ताल पर ब्रज की युवतियां व नारियां गा और नाच रही हैं। अपने ही हाथों से मोहन बिहारी चंदन व केसर छिडक रहा है। अपनी मुट्ठियों में लाल गुलाल भर-भर कर चारों ओर सब पर डाल रहा है। छैल-छबीले नवल कान्हा के साथ प्राण प्यारी राधा भी हैं। सब हाथों से तालियाँ बजा-बजाकर धमार राग की धुन पर गा रहे हैं। रसिक सांवरा झूम-झूमकर जिस विधि से फाग खेल रहा है उसके कारण ब्रज में भारी उल्लास छा गया है। हे मीरा के प्रभु गिरधरनागर! कान्हा की छवि बडी अद्भुत है। वह मोहने वाला है, वह लाल भी है। उसकी आभा आरुणिक है और वह बिहारी भी है, यानी रस छिडकता चलता है।

जागो मोरे प्यारे
जागो बंसी वारे ललना, जागो मोरे प्यारे। ...पूरा पढ़ें

भावार्थ

बालकृष्ण के मनमोहक छवि को अपने मन में बसाकर मीराबाई ने इस पद की रचना की। जागो मेरे बंसीवाले लाल, जागो मेरे प्यारे। रात बीत गई और सुबह हो गई है। घर-घर के दरवाज़े खुल गए हैं और लोग काम-काज में जुट गए हैं। गोपियां दही मथ रही हैं। उनके कंगनों की झंकार सुनाई देती है। उठो मेरे लालजी, सुबह हो गयी है। तुम्हारे द्वार पर देवता व मनुष्य दर्शनों के लिये खडे हैं। सारे ग्वाल-बाल जमा होकर कोलाहल कर रहे हैं और तुम्हारी जय-जयकार के नारे लगा रहे हैं। गऊओं के रखवाले, मैं तुम्हारे लिए हाथों में माखन-रोटी लेकर खडी हूँ, जल्दी से उठकर आ जाओ। हे मीरा के प्रभु गिरधरनगार! जो तुम्हारी शरण में आता है तुम उसे अवश्य तारते हो।

म्हारां री गिरधर गोपाल
म्हारां री गिरधर गोपाल दूसरां णा कूयां।
दूसरां णां कूयां साधां सकल लोक जूयां।
भाया छांणयां, वन्धा छांड्यां सगां भूयां।
साधां ढिग बैठ बैठ, लोक लाज सूयां।
भगत देख्यां राजी ह्यां, ह्यां जगत् देख्यां रूयां
दूध मथ घृत काढ लयां डार दया छूयां।
राणा विषरो प्याला भेज्यां, पीय मगण हूयां।
मीरा री लगण लग्यां होणा हो जो हूयां॥

भावार्थ

भगवत् प्रेम में मगन मीराबाई कहती हैं कि-मेरे तो बस एक गिरधर गोपाल ही हैं, दूसरा कोई नहीं है। मैंने सारा संसार छान मारा, किंतु उसके जैसा मुझे कोई और नजर नहीं आया। उसने मुझे इस प्रकार वशीभूत कर लिया कि मैंने भाई-बंधु और सारे सगे-संबंधियों तक को छोड दिया। साधुओं के साथ बैठ-बैठकर लोक-लाज भी त्याग दी। भक्त पर नजर पडते ही हर्ष होता है। जगत् की अफरातफरी देखकर मन खिन्न होता है। मैंने तो दूध मथकर घी निकाल लिया और छाछ फेंक दी है। राणा ने विष का प्याला भेजा तो उसे पीकर मैं मगन हो गई हूँ। मीरा ने तो गिरधर गोपाल से लगन लगा ली, अब तो जो होना हो, होने दो।

लियो रमैया मोल
माई मैं तो लियो रमैया मोल।
कोई कहै छानी, कोई कहै चोरी, लियो है बजता ढोल।
कोई कहै कारो, कोई कहै गोरो, लियो है अखीं खोल।
कोई कहै हल्का, कोई कहै महंगा, लियो है तराजू तोल।
तन का गहना मैं सबकुछ दीन्हा, दियो है बाजूबन्द खोल।
मीरा रे प्रभु गिरधरनागर, पूरब जनम का कोल॥

भावार्थ

भक्ति की पराकाष्ठा का परिचायक है यह पद। भगवान् तो हमेशा भक्त के वश में होते हैं। मीरा कहती है कि-मैंने तो रमैया को मोल लिया है। कोई कहता है कि मैंने लुक-छिप कर मोल लिया है। कोई कहता है कि चोरी की है, जबकि मैंने ढोल बजाकर खुलेआम लिया है। कोई कहता है रमैया काला है, कोई कहता है कि गोरा है, जबकि कान खोलनकर भलीभाँति परख लिया है। कोई कहता है कि हलका है, कोई कहता है कि महंगा है, जबकि मैंने तराजू में तौलकर लिया है। जिसके पास रमैया हो उसे किसी और चीज की आवश्यकता नहीं होती। अत: मैंने तन के गहने रमैया के बदले में दे दिए। बाजूबंद भी खोल दिया है। हे मीरा के प्रभु गिरधरनागर! तुम पूर्वजन्म का वचन निभाते हुए मेरी लाज रख लो।

झूठी जगमग जोति
आवो सहेल्या रली करां हे, पर घर गावण निवारि।
झूठा माणिक मोतिया री, झूठी जगमग जोति।
झूठा सब आभूषण री, सांचि पियाजी री पोति।
झूठा पाट पटंबरारे, झूठा दिखणी चीर।
सांची पियाजी री गूदडी, जामे निरमल रहे सरीर।
छप्प भोग बुहाई दे है, इन भोगिन में दाग।
लूण अलूणो ही भलो है, अपणो पियाजी को साग।
देखि बिराणै निवांण कूं हे, क्यूं उपजावै खीज।
कालर अपणो ही भलो है, जामें निपजै चीज।
छैल बिराणे लाख को हे अपणे काज न होइ।
ताके संग सीधारतां हे, भला न कहसी कोइ।
वर हीणों आपणों भलो हे, कोढी कुष्टि कोइ।
जाके संग सीधारतां है, भला कहै सब लोइ।
अबिनासी सूं बालवां हे, जिपसूं सांची प्रीत।
मीरा कूं प्रभु मिल्या हे, ऐहि भगति की रीत॥

भावार्थ

जगत् के मिथ्या स्वरूप से भलीभाँति परिचित मीरा अपनी सखियों को भी यह राज बताना चाहती हैं। वह कहती है-आओ सहेलियों, हम खेले-कूदें, पराये घर आने-जाने का परित्याग करें। अपनी आत्मा का मंथन करें ताकि काया के आवागमन का सिलसिला समाप्त हो। ये माणिक-मोती सब मिथ्या हैं। जगमग करती ज्योति भी मिथ्या है। भौतिक पदार्थो में उलझने का कोई लाभ नहीं है। सबकुछ नाशवान है। ये सारे आभूषण भी मिथ्या हैं। सच है तो सिर्फ पिया यानी भगवान् की प्रीति। ये रेशमी कपडे व दक्षिणी साडियां भी मिथ्या हैं। बस पियाजी की गूदडी ही सच है, जिसमें शरीर निर्मल बना रहता है। छप्पन भोगों का त्याग करो, इन भोगों से दाग़ लगता है। अपने पिया जी का नमक या बिना नमक का साग ही भला है। दूसरे की घी चुपडी रोटी देखकर खीजना नहीं चाहिए। अपनी नोनी मिट्टी जमीन ही भली, जिससे कोई चीज तो बनाई जा सकती है। पराया छैल-छबीला लाख का हो किंतु अपने काम का नहीं होता। उसके साथ मेल-जोल किया जाए तो उसे कोई भला नहीं कहता। अपना वर चाहे हीन, कोढी या कुष्ठ रोगी ही क्यों न हो, वही भला होता है। उसके साथ मेल-जोल किया जाए तो सब उसे भला कहते हैं। मेरे बालम तो अविनाशी हैं। उसकी प्रीत सच्ची है। मीरा को तो प्रभु मिल गया, वही मेरा सर्वस्व है, उसकी प्रीत मुझे भली लगती है। बाकी सबकुछ मिथ्या है, यही भक्ति की रीत भी है।

नित उठ दरसण जास्यां
माई म्हां गोविन्द, गुण गास्यां।
चरणम्रति रो नेम सकारे, नित उठ दरसण जास्यां।
हरि मन्दिर मां निरत करावां घूंघर्यां छमकास्यां।
स्याम नाम रो झांझ चलास्यां, भोसागर तर जास्यां।
यो संसार बीडरो कांटो, गेल प्रीतम अटकास्यां।
मीरा रे प्रभु गिरधरनागर, गुन गावां सुख पास्यां॥

भावार्थ

मीरा कहती हैं कि मेरी माई, लोग कुछ भी कहते रहें, मैं तो सदा गोविंद के गुण ही गाऊंगी। चरणामृत का नियम निभाने नित्य प्रात:काल उठकर उसके दर्शन करने जाया करूंगी। हरि मंदिर में जाकर नृत्य करूंगी और घुंघरू छमकाऊंगी। श्याम नाम का झांझ बजाऊंगी और इस प्रकार भवसागर तर जाऊंगी। यह संसार तो मुझे बेरी के कांटों-सा चुभता हुआ प्रतीत होता है। प्रीतम मुझे ऐसे संसार में अटकाकर न जाने कहां चला गया है। हे मीरा के प्रभु गिरधरनागर! तेरे गुण गाते हुए मुझे सुख की प्राप्ति होती है, मैं तो सदा तेरे गुण गाऊंगी।

चरण कमल लपटाणी
राणाजी ने जहर दियो म्हे जाणी।
जैसे कन्चन दहत अगनि मे, निकसत बाराबाणी।
लोकलाज कुल काण जगत् की, दइ बहाय जस पाणी।
अपणे घर का परदा करले, मैं अबला बौराणी।
तरकस तीर लग्यो मेरे हियरे, गरक गयो सनकाणी।
सब संतन पर तन मन वारों, चरण कंवल लपटाणी।
मीरा को प्रभु राखि लई है, दासी अपणी जाणी॥

भावार्थ

मीराबाई कहती हैं कि राणा जी, आपने मुझे जहर दिया था, यह मैं जानती हूँ। इसके बावजूद मैंने उसे चुपचाप पी लिया। फिर क्या हुआ? जैसे सोना आग में जलकर चमकता हुआ बाहर निकलता है, उसी प्रकार जहर पीकर मेरी प्रीत और अधिक प्रगाढ व हार्दिक बन गई। अब मेरे लिए जगत् की लोक-लाज और कुल के सम्मान का कोई महत्त्‍‌व नहीं रहा। मैंने इन सबको वैसे ही बहा दिया है जैसे पानी का रेला बहा दिया। राणाजी मैं तो कहती हूँ कि अपने घर का परदा कर लो, मेरा कोई भरोसा नहीं, मैं अबला बौरा गई हूँ। मेरी कौन-सी हरकत तुम्हारे कुल को आहत कर दे, मैं नहीं जानती। हरि प्रीत के तरकस का तीर मेरे हृदय में बिंध गया है और मैं पगला गई हूँ। मैंने अपना तन-मन, सर्वस्व संतों पर वार दिया है और हरि के चरणकमलों से लिपट गई हूं। हे मीरा के प्रभु! मुझे अपनी दासी जानकर अपने चरणों में स्थान दे दो, अब और कहीं मन नहीं लगता।

गिरधर के घर जाऊँ
मैं तो गिरधर के घर जाऊं।
गिरधर म्हांरो सांचो प्रीतम, देखत रूप लुभाऊं।
रैण पडै तब ही उठि जाऊं, भोर गये उठि आऊं।
रैणदिना बाके सेंग खेलूं, ज्यूं त्यूं वाहि रिझाऊं।
जो पहिरावै होई पहिरूं, जो दे सोई खाऊं।
मेरी उणकी प्रीत पुरानी, उण बिन पल न रहाऊं।
जहां बैठावें तितही बैठूं, बेचे को बिक जाऊं।
मीरा रे प्रभु गिरधरनागर, बार बार बलि जाऊं॥

भावार्थ

कृष्ण के प्रेम सरोवर में डूबी मीरा कहती हैं कि मैं तो गिरधर के घर जाती हूँ। गिरधर मेरा सच्चा प्रेमी है। उसे देखते ही उसके रूप से मैं लुब्ध हो जाती हूँ। रात होते ही मैं उसके घर जाती हूँ और सुबह होते ही वहाँ से उठकर घर वापस आती हूँ। दिन-रात उसी के संग खेलती हूँ। मैं हर प्रकार से उनको प्रसन्न रखने का प्रयास करती हूँ। जो वह पहनने को देता है वही पहनती हूँ। जो खाने को देता है वही खाती हूँ, मेरी उसकी पुराणी प्रीत है। उसके बिना एक पल भी नहीं रहा जाता। वह जहाँ बिठाता है, वहीं बैठती हूँ। वह मुझे बेचना भी चाहे तो मैं चुपचाप बिक जाऊंगी। हे प्रभु गिरधरनागर! तुम पर मैं बार-बार बलि जाती हूँ।

अमृत दीन्ह बनाय
मीरा मगन भई हरि के गुण गाय।
सांप पिटारा राणा भेज्यों, मीरा हाथ दिया जाय।
न्हाय धोय जब देखण लागी, सालिगराम गई पाय।
जहर का प्याला राणा भेज्या, अमृत दीन्ह बनाय।
न्याह धोय जब पीवण लागी, हो अमर अंचाय।
सूल सेज राणा ने भेजी, दीज्यो, मीरा सुलाय।
सांझ भई मीरा सोवण लागी, मानो फूल बिछाय।
मीरा रे प्रभु सदा सहाई, राखे बिघन हटाय।
भजन भाव में मस्त बोलती, गिरधर पै बलि जाय॥

भावार्थ

मीरा हरि के गुण गाती हुई मगन हो रही है। राणा ने सांप की पिटारी भिजवाई थी और लाने वाले ने जाकर मीरा के हाथों में थमा दी। नहा-धोकर जब वह पिटारी खोलकर देखने लगी तो उसे पिटारी से शालिग्राम की प्राप्ति हुई। राणा ने जहर का प्याला भेजा और बताया कि अमृत है। नहा-धोकर जब उसने उसे पी लिया तो मानो सचमुच अमृत पीकर वह अमर हो गई। राणा ने शूलों की सेज भेजकर कहा कि इस पर मीरा को सुलाना। सांझ को मीरा उस पर सोई तो उसे ऐसा लगा मानो वह फूलों की सेज पर सोई हो। प्रभु मीरा की सदैव सहायता करते हैं और उसके विघनें को टालते रहते हैं। मीरा निश्चित होकर भजन-भाव में मगन होकर डोलती फिरती है और गिरधर पर बलि-बलि जाती है।

नसदिन जोऊ बाट
जोगिया जी निसदिन जोऊ बाट।
पांव न चालै पंथ दूहेलो; आडा औघट घाट।
नगर आइ जोगी रस गया रे, मो मन प्रीत न पाइ।
मैं भोली भोलापण कीन्हो, राख्यौ नहिं बिलमाइ।
जोगिया कूं जोवत बोहो दिन बीत्या, अजहूं आयो नाहिं।
बिरह बुझावण अन्तरि आवो, तपन लगी तन माहिं।
कै तो जोगी जग में नाहीं, केर बिसारी मोइ।
कांइ करूं कित जाऊंरी सजनी नैण गुमायो रोइ।
आरति तेरा अन्तरि मेरे, आवो अपनी जांणि।
मीरा व्याकुल बिरहिणी रे, तुम बिनि तलफत प्राणि॥

भावार्थ

प्रभु के प्रेम में मीरा विरहिणी बन चुकी है। वह हमेशा अपने प्रियतम नंदलाल की राह देखा करती है। मेरे जोगिया जी, मैं रात-दिन निरंतर तुम्हारी बाट जोहती हूँ। प्रेम की डगर बडी दुष्कर है, इस आडे और संकरे पथ पर कदम रखना बडे जोखिम का काम है। नगर में जाकर जोगी ऐसा रम गया है कि सुध-बुध खो बैठा और मेरे मन में प्रीत की थाह का अनुमान नहीं लगा सका। मैं भोली थी और भोलापन ही करती रही, इसलिए तो मैं उसे प्रेम में फांस न सकी। जोगी जी, मेरे अंतर में जो विरहाग्नि सुलग रही है, उसे बुझाने को आओ। मेरा सारा शरीर तप रहा है। मुझे तो लगता है कि जोगी जग में कहीं खो गया है, या उसने मुझे भूला दिया है। रात-दिन रो-रोकर मैंने तो अपनी आंखों को ही खराब कर लिया है। मेरा अंतर तुम्हारी चाहत में तडप रहा है, मुझे अपना मानकर आ जाओ। मीरा कहती है कि मैं तुम्हारे दर्शन पाने को व्याकुल विरहिणी हो रही हूँ। तुम जल्दी आन मिलो प्रीतम, तुम्हारे बिना मेरे प्राण तडपते हैं।

मुरली कर लकुट लेऊँ
गोहनें गुपाल फिरूं, ऐसी आवत मन में।
अवलोकन बारिज बदन, बिबस भई तन में।
मुरली कर लकुट लेऊं, पीत बसन धारूं।
काछी गोप भेष मुकट, गोधन संग चारूं।
हम भई गुलफाम लता, बृन्दावन रैना।
पशु पंछी मरकट मुनी, श्रवन सुनत बैनां।
गुरुजन कठिन कानि कासौं री कहिए।
मीरा प्रभु गिरधर मिलि ऐसे ही रहिए॥

भावार्थ

मीरा कहती है कि मेरे मन में ऐसा विचार आता है कि सदैव गोपाल के साथ-साथ घूमूं -फिरूं। उसका कमल जैसा मुखडा देख करके मेरा तन विवश हो जाता है। जी करता है कि हाथ में मुरली व छडी लूं और पीले वस्त्र धारण करूं। फिर गोप का वेश बनाकर और सिर पर मुकुट धरकर गोधन (गउओं) के साथ विचरती फिरूं। इस कल्पना से मीरा इतना विमुग्ध होती है कि उसे प्रतीत होता है, वह तो वृंदावन की धूल बन गई है और यहां के पशु, पक्षी, वानर व मुनियों की वाणी अपने कानों में सुन रही है। गुरुजनों की बडी कठोर मर्यादाएं हैं, मैं तो अपने मन की बात उनको बता नहीं सकती। मीरा कहती है कि हे प्रभु, हे मेरे गिरधर! मेरी जैसी कल्पना है, उसी प्रकार मुझसे मिलकर रहिए।

लोक कहें मीरा भई बाबरी
कोई कछु कहो रे रंग लाग्यो, रंग लाग्यो भ्रम भाग्यो।
लोक कहै मीरा भई बाबरी, भ्रम दूनी ने खाग्यो।
कोई कहै रंग लाग्यो।
मीरा साधां में यूं रम बैठी, ज्यूं गूदडी में तागो।
सोने में सुहागो।
मीरा सूती अपने भवन में, सतगुरु आप जगाग्यो।
ज्ञानी गुरु आप जगाग्यो।

भावार्थ

कृष्ण के प्रेम में मगन मीरा कहती है कि कोई कुछ भी कहता रहे, मैं तो श्याम के रंग में रंग गई। उसकी प्रीत का गहरा रंग मुझे लग गया है और मेरे सारे भ्रम दूर हो गए हैं। लोग कहते हैं कि मीरा बावरी हो गई है, यह दुनिया का भ्रम है। कोई कहता है कि मीरा को श्याम का रंग लग गया है। वह साधुओं में जाकर यों रम गई है जैसे गुदडी में धागा समाहित होता है या जैसे सोने में सुहागा। मीरा कहती है कि मुझे श्याम के रंग का कहां ज्ञान था। मैं तो अपने भवन में निद्रामग्न थी कि सतगुरु स्वयं आकर मुझे जगा गए। गुरु की कृपा से ही मैं श्याम की प्रीत में रंग गई और मेरे सारे भ्रम भाग गए।

बन-बन बिच फिरूँ री
करणां सुणि स्याम मेरी।
मैं तो होई रही चेरी तेरी।
दरसण कारण भई बावरी बिरह बिथा तन घेरी।
तेरे कारण जोगण हूंगी नग्र बिच फेरी।
कुंज सब हेरी हेरी।
अंग भभूत गले म्रिघ छाला, यो तन भसम करूं री।
अजहूं न मिल्या, राम अबिनासी, बन बन बिच फिरूं री।
रोऊं नित टेरी-टेरी।
जन मीरा कूं गिरधर मिलिया, दु:ख मेटण सुख भेरी।
रूम रूम साता भई उर में, मिटि गई फेरा फेरी।
रहूं चरननि तरि चेरी॥

भावार्थ

कृष्ण की विरहाग्न में डूबी मीरा कती है - हे श्याम! मेरी करुण पुकार सुनो, मैं तो तेरी सदा-सदा की दासी हूँ। तेरा दर्शन पाने को पागल हुई जाती हूँ और विरह की वेदना ने मेरे तन को घेर लिया है। तेरे कारण मैं जोगन बन गई हूं और नगर-नगर में भटकती फिरती हूँ। सारे कुंजों में तुम्हें खोज रही हूँ। अंग-अंग में भभूत और गले में मृगछाला डाल ली है। इस प्रकार तेरा यह तन भस्म कर रही हूं। आज भी मुझे राम अविनाशी नहीं मिला। मैं वन-वन में उसको ढूंढती मारी-मारी फिर रही हूँ और उसे टेर-टेर कर नित्य रो रही हूँ। जब मीरा को गिरधर मिला, सुख देने वाले ने सारे दु:ख मिटा दिए। रोम-रोम व हृदय शांत पड गए हैं और मैं बार-बार जीने-मरने के मायाजाल से मुक्त हो गई हूँ। अब तुम्हारी यह दासी सदा तुम्हारे चरणों तले रहेगी।

हाड हिमालां गरां
सतबादी हरिचन्दा राजा, डोम घर णीरां भरां।
पांच पांडु री राणी द्रुपता, हाड हिमालां गरां।
जाग कियां बलि लेन इन्द्रासन, जांयां पाताल करां
मीरा रे प्रभु गिरधरनागर, बिखरू अभ्रित करां॥

भावार्थ

भाग्य का लिखा अटल है, इसे नहीं टाला जा सकता। यह भाग्य के लिखे का ही फल है कि सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र को डोम के घर पानी भरने की चाकरी करनी पडी थी। पांच पांडवों की रानी द्रौपदी को हिमालय पर जाकर अपना शरीर गलाना पडा था। बलि ने इंद्रासन पर अधिकार जमाने के लिए यज्ञ किया था, किंतु भाग्य के लिखे ने उसे पाताल में जा पटका। मीरा के प्रभु तो गिरधरनागर हैं। वही भाग्यविधाता हैं, उन्हीं की इच्छा से विष भी अमृत बन जाता है।

चरण कमल पर वारी
आवत मोरी गलियन में गिरधारी।
मैं तो छुप गई लाज की मारी।
कुसुमल पाग केसरिया जामा, ऊपर फूल हजारी।
मुकुट ऊपर छत्र बिराजे, कुण्डल की छबि न्यारी।
केसरी चीर दरयाई को लेंगो, ऊपर अंगिया भारी।
आवत देखी किसन मुरारी, छिप गई राधा प्यारी।
मोर मुकुट मनोहर सोहै, नथनी की छबि न्यारी।
गल मोतिन की माल बिराजे, चरण कमल बलिहारी।
ऊभी राधा प्यारी अरज करत है, सुणजे किसन मुरारी।
मीरा रे प्रभु गिरधरनागर, चरण कमल पर वारी॥

भावार्थ

गिरधारी को अपनी गली में आते देखा तो लाज की मारी मैं छिप गई। उनके सिर पर लाल रंग की पगडी थी, तन पर केसरिया वस्त्र और ऊपर सहस्त्र दलों के पुष्प। मुकुट के ऊपर छत्र विराजमान था और कुण्डलों की छवि न्यारी। राधा ने केसरिया रंग की अंगिया पहन रखी थी। प्यारी राधा ने किशन मुरारी को आते देखा तो छिप गई। उनके माथे पर मोर-मुकुट सज रहा था और नथनी की छवि न्यारी थी। गले में मोतियों की माला विराज रही थी। मैं उनके चरणकमलों पर बलिहारी जाती हूँ। राधा प्यारी खडी विनती करती है कि किशन मुरारी, मेरी बात सुनकर जाओ। मीरा कहती है कि मेरे प्रभु तो गिरधरनागर हैं, उनके चरणकमलों पर वारी-वारी जाती हूँ।

णेणा बाण पडी
आली री म्हारे णेणा बाण पडी।
चित्त चढी म्हारे माधुरी मूरत, हिवडा अणी गढी।
कब री ठाडी पंथ निहारां, अपने भवण खडी।
अटक्यां प्राण सांवरो, प्यारो, जीवण मूर जडी।
मीरा गिरधर हाथ बिकाणी, लोक कह्यां बिगडी॥

भावार्थ

मीरा कहती हैं कि सखी री, मेरे नैनों को तो सदैव मनमोहन की मूरत निहारने की आदत पड गई है। मेरे चित्त पर उसकी मधुर मूरत ऐसी चढ गई है कि किसी और की सुध ही नहीं रहती। हृदय में इस मनमोहक मूरत की नोक हमेशा गडी रहती है। फिर इसमें किसी और की स्मृति कैसे समा सकती है। अपने भवन में खडी कब से मैं पथ निहार रही हूँ। मेरे प्राण उसी सांवले, प्यारे मनमोहन में अटके हुए हैं। वही मेरे जीवन का मूल है। मीरा कहती है कि मैं तो गिरधर के हाथों बिक चुकी हूं और लोग कहते फिरते हैं कि मैं बिगड गई हूँ।

बैठी कदम की डारी
आज अनारी ले गयो सारी, बैठी कदम की डारी।
म्हारे गले पड्यो गिरधारी, हे माय, आज अनारी।
मैं जल जमुना भरन गई थी, आ गयो कृश्न मरारी।
ले गयो सारी अनारी म्हारी, जल में ऊभी उधारी।
सखी साइनि मेरी हंसत है, हंसि हंसि दे मोहिं तारी।
सास बुरी अर नणद हठीली, लरि लरि दे मोहिं गारी।
मीरा रे प्रभु गिरधरनागर, चरण कमल की बारी।

भावार्थ

कृष्ण प्रेम में बिरहिणी बनी मीरा यहाँ अपनी कल्पना में गोपी बन जाती है और अपनी माँ से कह रही है कि कदंब की डाल पर छिपकर बैठा नटखट नागर आज मेरी साडी ले गया। आज तो नटखट गिरधारी मेरे पीछे पड गया। जब मैं यमुना में जल भरने गई थी, वहां कृष्ण मुरारी पहुँच गया। नटखट मेरी साडी ले गया और मैं जल में निर्वस्त्र खडी रही। मेरी हालत देखकर मेरी सखियां हंस-हंस कर मुझ पर तालियां बजा रही थीं। मेरी सास बुरी और ननद हठीली है, वे लडती-झगडती और मुझे गालियां देती हैं। मीरा के प्रभु गिरधरनागर हैं, मैं उनके चरणकमलों में वारी-वारी जाती हूँ।

भाग हमारा जागा रे
अब कोऊ कछु कहो दिल लागा रे।
जाकी प्रीति लगी लालन से, कंचन मिला सुहागा रे।
हंसा की प्रकृति हंसा जाने, का जाने मर कागा रे।
तन भी लागा, मन भी लागा, ज्यूं बाभण गल धागा रे।
मीरा रे प्रभु गिरधरनागर, भाग हमारा जागा रे॥

भावार्थ

कृष्ण के प्रेम में भावविभोर होकर मीरा कहती है कि मैं अपने वश में नहीं, अब कोई कुछ भी कहता रहे, मेरा दिल तो मनमोहन से लगा है। जिसकी प्रीत मनमोहन से लग जाती है उसका जीवन सोने पर सुहागा जैसा होता है। वह कितना आह्लादित होता है, इसका अनुभव सिर्फ वही कर सकता है, कोई अन्य नहीं। हंस की प्रकृति सिर्फ हंस ही जान सकता है, बेचारा कौआ क्या जाने! मैंने तो कृष्ण प्रीति में तन-मन यों लगा दिया है जैसे ब्राह्मण के गले में जनेऊ। मीरा कहती है कि मेरे प्रभु तो गिरधरनागर हैं। उनसे प्रीति करके मेरे भाग्य जाग गए।

अमर बेल बोई
अब तो मेरा राम नाम दूसरा न कोई॥
माता छोडी पिता छोडे छोडे सगा भाई।
साधु संग बैठ बैठ लोक लाज खोई॥
सतं देख दौड आई, जगत् देख रोई।
प्रेम आंसु डार डार, अमर बेल बोई॥
मारग में तारग मिले, संत राम दोई।
संत सदा शीश राखूं, राम हृदय होई॥
अंत में से तंत काढयो, पीछे रही सोई।
राणे भेज्या विष का प्याला, पीवत मस्त होई॥
अब तो बात फैल गई, जानै सब कोई।
दास मीरा लाल गिरधर, होनी हो सो होई॥

भावार्थ

मीरा के लिये भगवत् प्रेम से बढकर कुछ नहीं था। भगवान् को पाने के लिये मीरा ने सर्वस्व त्याग कर दिया। माँ-बाप, पति, सगे-संबंधी सबको छोडकर वह भगवान् की शरण में आ गई। वह कहती है कि जग में मेरा हरि के सिवा और कोई अपना नहीं है। गुरु की कृपा और संतों के सत्संग से मैंने लोक-लाज त्याग दी है। अब में सांसारिक मायाजाल से मुक्ति पा गई हूँ।

मन नाहीं मानी हार
मैं तो तेरी सरण पडी रे रामां, ज्यूं जाणे ज्यूं तार।
अडसठ तीरथ भ्रमि भ्रमि आयो, मन नाहीं मानी हार॥
या जग में कोई नहीं अपणां, सुनियौ स्त्रवन मुरार।
मीरा दासी राम भरोसे, जम का फंद निवार॥

भावार्थ

गिरधारी! लाखों यज्ञ और सभी तीर्थ करने के बाद भी मेरा मन मेरे वश में नहीं है। अब मैं तुम्हारी शरण में आई हूँ। मुझे इस भवसागर से पार करो। इस जगत् के सभी बंधन झूठे हैं। यहां कोई भी अपना नहीं है। मुझे तो सिर्फ तुम्हारा ही आसरा है।

दूखन लागे नैन
दरस बिन दूखन लागे नैन।
जब से तुम बिछुडे मोरे प्रभु जी, कबहु न पायो चैन।
शब्द सुनत मेरी छातियां कंपै, मीठे लगे बैन।
एक टकटकी पंथ निहारूं, भई छ-मासी रैन।
विरह विथा कासूं कहूं सजनी, बह गई करवत ऐन।
मीरा रे प्रभु कब रे मिलोगे, दु:ख मेटन सुख देन॥

भावार्थ

हरि दर्शन की प्यासी मीरा अपनी विरह वेदना प्रकट करते हुए कहती है कि आपके वियोग में मुझे एक पल भी चैन नहीं मिलता। एक-एक रात छह-छह माह के समान बीतती है। आपके वियोग में मैं इस तरह तडप रही हूं जैसे मेरे हृदय पर तीक्ष्ण तलवार चल रही है। मीरा प्रभु से जल्दी मिलने की विनती करती है ताकि दु:ख का निवारण हो और सच्चे सुख की प्राप्ति हो।

बांह गहे की लाज
अब सो निभायां सरेगी, बांह गहे की लाज॥
समरथ सरण तुम्हारी साइयां, सरब सुधारण काज॥
भव सागर संसार अपरबल, जा में तुम हो जहाज॥
निरधारां अधार जगत् गुरु, तुम बिन होय अकाज॥
जुग-जुग भीर हरी भक्तन की दीनो मोक्ष समाज॥
मीरा सरण गही चरणन की, लाज रखो महाराज॥

भावार्थ

हरि का नाम जपते हुए सत्य की नौका ही संसार रूपी सागर से पार करती है। मीरा कहती है, मैं भी ईश्वर के चरणों में हूं जिसके स्मरण मात्र से ही सब कार्य पूरे हो जाते हैं। भक्तों के दु:ख दूर करने वाले सांवरिए मीरा की भी लाज रखना।

बेडो लगाज्यो पार
मेरो बेडो लगाज्यो पार प्रभु जी मैं अरज करूं छै।
या भव में मैं बहुत दु:ख पायो, संसा सोग निवार।
अष्ट करम की तलब लगी है, दूर करो दु:ख भार।
यो संसार सब बह्यो जात है, लख चौरासी री धार।
मीरा रे प्रभु गिरधरनागर, आवागमन निवार॥

भावार्थ

जगत् के मिथ्यास्वरूप से भालीभाँति परिचित मीरा आवागमन के चक्र से मुक्त होना चाहती है। वह कहती है कि हे प्रभु जी! मैं विनती करती हूं कि मेरा उद्धार कर दो। मेरे बेडे को उस पार लगा दो। इस संसार से मुझे विरक्ति हो गई है। यहाँ मैं बहुत दु:ख पा रही हूं। चित्त सदैव शंकाओं व शोकों से घिरा रहता है। इन सबका तुम ही निवारण कर सकते हो। संसार में रही तो बस अष्ट कर्मो की तलब लगी रहेगी और मोह-माया से कभी छुटकारा नहीं मिल सकेगा। मेरे इस दु:ख के भार को तुम दूर कर सकते हो। यह सारा संसार चौरासी लाख योनियों की धाराओं में बहता चला जा रहा है अर्थात् बार-बार विभिन्न योनियों में जन्म लेकर आवागमन के चक्रव्यूह में फंसा हुआ है। हे मीरा के प्रभु गिरधरनागर! मेरा उद्धार करो, ताकि मेरे आवागमन का सिलसिला ही समाप्त हो जाए।

भजणा बिना नर फीका
आली म्हाणो लागां बृन्दावण नीकां।
घर-घर तुलती ठाकर पूजां, दरसण गोविन्द जी कां।
निरमल नीर बह्या जमणां मां, भोजण दूध दहीं कां।
रतण सिंघासण आप बिराज्यां, मुगट धर्या तुलसी कां।
कुंजन-कुंजन फिर्या सांवरा, सबद सुण्या मुरली कां।
मीरा रे प्रभु गिरधरनागर, भजण बिना नर फीकां॥

भावार्थ

कृष्ण से अंतरंग प्रेम के कारण मीराबाई का मन वृंदावन में रमा रहता था। वह कहती है कि मेरी सखी, मुझे वृंदावन की शोभा बडी प्यारी लगती है। वहां घर-घर में तुलसी से ठाकुरजी की पूजा होती है और कण-कण में गोविंदजी के दर्शन होते हैं। यमुना में निर्मल जल बहता है और सब दूध-दही का भोजन करते हैं। स्वयं मेरा श्याम रत्‍‌न सिंहासन पर विराजता है और उसके सिर पर तुलसी मुकुट है। वहां मेरा सांवरिया कुंज-कुंज में विचरता है और मुरली का स्वर सुनाई देता है। हे मीरा के प्रभु गिरधरनागर! सच तो यह है कि भजन के बिना नर का जीवन निरर्थक है।

मैं सरण हूं तेरी
हरि बिन कूण गति मेरी।
तुम मेरे प्रतिपाल कहियै, मैं रावरी चेरी।
आदि अंत नित नांव तेरो, हीया में फेरी।
बेरि बेरि पुकारि कहूं, प्रभु आरति है तेरी।
यौ संसार विकार सागर, बीच में घेरी।
नाव फाटी पाल बांधो, बूडत हे बेरी।
बिरहणि पिवकी बाट जोवै, राख्लियौ नेरी।
दासि मीरा राम रटत है, मैं सरण हूं तेरी॥

भावार्थ

भगवान् के बिना सृष्टि की कल्पना भी व्यर्थ है। मीरा कहती है कि रि के बिना मेरी अन्य कौन-सी गति है? तुम्हीं मेरे प्रतिपालक कहलाते हो और मैं तुम्हारी दासी। आदि से अंत तक तुम्हारा ही नाम हृदय में बार-बार लेती हूं। मैं तुमसे निरंतर पुकार-पुकार कर कहती हूँ कि हे प्रभु! तुम्हारे दर्शनों की तीव्र लालसा है.. आकर मेरी सुध लो। यह संसार और कुछ नहीं है, केवल दुखों और कष्टों का सागर है और मैं इसके बीच घिरी हुई हूँ। मेरी नाव टूट-फूट गई है। हे प्रभु जल्दी से पाल बांधो, वरना इसके डूबने में देर नहीं है। मैं विरहिणी अपने पिया की बाट जोह रही हूं। कृपया करके मुझे अपने पास ही रख लो। यह मीरा दासी सदैव राम का नाम रटती है। स्वयं को तुम्हारे चरणों में सौंप दिया है, मेरी सुध लो, प्रभु।

थारी सरणां आस्यां री
पग बांध घुंघरयां णाच्यारी।
लोग कह्यां मीरा बाबरी, सासु कह्यां कुलनासी री।
विष रो प्यालो राणा भेज्यां, पीवां मीरा हांसां री।
तण मण वार्यां हरि चरणमां दरसण प्यास्यां री।
मीरा रे प्रभु गिरधरनागर, थारी सरणां आस्यां री॥

भावार्थ

मैं पैरों में घुंघरू बांधकर नाच रही हूं। यह देखकर मीरा कहती है कि-लोग कहते हैं कि मीरा बावली हो गई है और सास कहती है कि मैं कुल कलंकिनी हूं। राणा तो इतने क्षुब्ध हुए कि विष का प्याला ही भेज दिया और मीरा ने उसे हंसते-हंसते पी लिया। मैंने अपना तन-मन हरि पर वार दिया है, उसके दर्शन से मुझे अमृत की प्राप्ति होती है। हे मीरा के प्रभु गिरधरनागर! मैं तुम्हारे चरणों में आ पडी हूं। लोगों के जी में जो आए कहते रहें।

कोई न करे प्रीत
रमईया मेरे तोही सूं लागी नेह।
लागी प्रीत जिन तोडै रे बाला, अधिकौ कीजै नेह।
जै हूं ऐसी जानती रे बाला, प्रीत कीयां दुष होय।
नगर ढंढोरो फेरती रे, प्रीत करो करो मत कोय।
षीर न षाजे आरी रे, मूरष न कीजै मिन्त।
षिण ताता षिण सीतला रे, षिण बैरी षिण मिन्त।
प्रीत करै ते बाबरा रे, करि तोडै ते क्रूर।
प्रीत निभावण दल के षभण, ते कोई बिरला सूर।
तम गजगीरी कौं चूंतरौरे, हम बालु की भीत।
अब तो म्यां कैसे बणै रे, पूरब जनम की प्रीत।
एकै थाणो रोपिया रे, इक आंबो इक बूल।
बाकौ रस नीकौ लगै रे, बाकी भागै सूल।
ज्यूं डूगर का बाहला रे, यूं ओछा तणा सनेह।
बहता बेता उतावला रे, वहैजी वे तो लटक बतावे छेह।
आयो सांवण भादवा रे, बोलण लागा मोर।
मीरा कूं हरिजन मिल्या रे, ले गया पवन झकोर॥

भावार्थ

रमैया, मेरी प्रीत तुम से ही लगी है। यह जो प्रीत लगी है, इसे तोडना मत बल्कि मुझसे अधिक नेह करना। यदि मैं पहले जानती कि प्रीत करने से दु:ख होता है तो मैं नगर-नगर में ढिंढोरा पिटवा देती कि कोई प्रीत करने की भूल न करे। खीर को आरी से नहीं खाया जाता। मूर्ख से मित्रता करने की भूल नहीं करनी चाहिए। मूर्ख क्षण में ही ठंडा पड जाता है और क्षण में ही गर्म। वह क्षण में दुश्मन बनता है और क्षण में ही मीत। प्रीत करने वाला पागल होता है। प्रेम निभाता है, ऐसा सूरमा विरला ही होता है। तुम मजबूत चबूतर हो तो मैं बालू की कमज़ोर भीत (दीवार)। अब तो कुछ नहीं हो सकता। मेरे प्रीतम, यह पूर्वजन्म की प्रीत है। आम व बबूल का पेड आसपास रोपा जाए तो भी उनका स्वभाव नहीं बदलता। आम के फल मीठे होंगे और बबूल के पेड में कांटे ही उगेंगे। जिस प्रकार ऊंचाई से गिरने वाला जल शुरू में तो तीव्रता से बहता है, फिर मंद पड जाता है, उसी प्रकार तना हुआ स्नेह भी ओछा होता है। यह पहले तो उतावलापन दिखाता है, किंतु जल्दी उसका उत्साह खत्म हो जाता है। भादो-सावन का महीना आ गया है, और मोर बोलने लगे हैं। मीरा को तो हरि जन मिल गया, जो मुझे पवन के झोंके की भांति उडाकर ले गया। [1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. मीराबाई (हिंदी) राजस्थानी। अभिगमन तिथि: 17 मार्च, 2013।

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