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विवाह के दस वर्ष बाद ही मीराबाई के पति भोजरात का निधन हो गया। सम्भवत: उनके पति की युद्धोपरांत घावों के कारण मृत्यु हो गई थी। पति की मृत्यु के बाद ससुराल में मीराबाई पर कई अत्याचार किए गए। तत्कालीन समाज में मीराबाई को एक विद्रोहिणी माना गया। उनके धार्मिक क्रिया-कलाप [[राजपूत]] राजकुमारी और विधवा के लिए स्थापित नियमों के अनुकूल नहीं थे। वह अपना अधिकांश समय कृष्ण को समर्पित निजी मंदिर में और [[भारत]] भर से आये साधुओं व तीर्थ यात्रियों से मिलने तथा भक्ति पदों की रचना करने में व्यतीत करती थीं।
विवाह के दस वर्ष बाद ही मीराबाई के पति भोजरात का निधन हो गया। सम्भवत: उनके पति की युद्धोपरांत घावों के कारण मृत्यु हो गई थी। पति की मृत्यु के बाद ससुराल में मीराबाई पर कई अत्याचार किए गए। तत्कालीन समाज में मीराबाई को एक विद्रोहिणी माना गया। उनके धार्मिक क्रिया-कलाप [[राजपूत]] राजकुमारी और विधवा के लिए स्थापित नियमों के अनुकूल नहीं थे। वह अपना अधिकांश समय कृष्ण को समर्पित निजी मंदिर में और [[भारत]] भर से आये साधुओं व तीर्थ यात्रियों से मिलने तथा भक्ति पदों की रचना करने में व्यतीत करती थीं।
==हत्या के प्रयास==
==हत्या के प्रयास==
पति की मृत्यु के बाद मीराबाई की [[भक्ति]] दिन-प्रतिदिन और भी बढ़ती गई। वे मंदिरों में जाकर वहाँ मौजूद कृष्ण भक्तों के सामने कृष्णजी की मूर्ति के आगे नाचती रहती थीं। मीरा के लिए आनन्द का माहौल तो तब बना, जब उनके कहने पर राजा महल में ही कृष्ण का एक मंदिर बनवा देते हैं। महल में मंदिर बन जाने से भक्ति का ऐसा वातावरण बनता है कि वहाँ साधु-संतों का आना-जाना शुरू हो जाता है। मीराबाई के देवर राणा विक्रमजीत सिंह को यह सब बुरा लगता है। ऊधा जी भी मीराबाई को समझाते हैं, लेकिन मीरा दीन-दुनिया भूल कर भगवान श्रीकृष्ण में रमती जाती हैं और वैराग्य धारण कर जोगिया बन जाती हैं।<ref name="ab">{{cite web |url=http://drmanojjpr.blogspot.in/2011/04/blog-post_3608.html|title=हिन्दी की महान कवियित्री मीराबाई|accessmonthday=16 मार्च|accessyear=2013|last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language=हिन्दी}}</ref> भोजराज के निधन के बाद सिंहासन पर बैठने वाले विक्रमजीत सिंह को मीराबाई का [[साधु]]-[[संत|संतों]] के साथ उठना-बैठना पसन्द नहीं था। मीराबाई को मारने के कम से कम दो प्रयासों का चित्रण उनकी कविताओं में हुआ है। एक बार फूलों की टोकरी में एक विषेला [[साँप]] भेजा गया, लेकिन टोकरी खोलने पर उन्हें कृष्ण की मूर्ति मिली। एक अन्य अवसर पर उन्हें विष का प्याला दिया गया, लेकिन उसे पीकर भी मीराबाई को कोई हानि नहीं पहुँची।
पति की मृत्यु के बाद मीराबाई की [[भक्ति]] दिन-प्रतिदिन और भी बढ़ती गई। वे मंदिरों में जाकर वहाँ मौजूद कृष्ण भक्तों के सामने कृष्णजी की मूर्ति के आगे नाचती रहती थीं। मीरा के लिए आनन्द का माहौल तो तब बना, जब उनके कहने पर राजा महल में ही कृष्ण का एक मंदिर बनवा देते हैं। महल में मंदिर बन जाने से भक्ति का ऐसा वातावरण बनता है कि वहाँ साधु-संतों का आना-जाना शुरू हो जाता है। मीराबाई के देवर राणा विक्रमजीत सिंह को यह सब बुरा लगता है। ऊधा जी भी मीराबाई को समझाते हैं, लेकिन मीरा दीन-दुनिया भूल कर भगवान श्रीकृष्ण में रमती जाती हैं और वैराग्य धारण कर जोगिया बन जाती हैं।<ref name="ab">{{cite web |url=http://drmanojjpr.blogspot.in/2011/04/blog-post_3608.html|title=हिन्दी की महान कवियित्री मीराबाई|accessmonthday=16 मार्च|accessyear=2013|last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language=हिन्दी}}</ref> भोजराज के निधन के बाद सिंहासन पर बैठने वाले विक्रमजीत सिंह को मीराबाई का [[साधु]]-[[संत|संतों]] के साथ उठना-बैठना पसन्द नहीं था। मीराबाई को मारने के कम से कम दो प्रयासों का चित्रण उनकी कविताओं में हुआ है। एक बार फूलों की टोकरी में एक विषेला [[साँप]] भेजा गया, लेकिन टोकरी खोलने पर उन्हें कृष्ण की मूर्ति मिली। एक अन्य अवसर पर उन्हें विष का प्याला दिया गया, लेकिन उसे पीकर भी मीराबाई को कोई हानि नहीं पहुँची।
====द्वारिका में वास====
====द्वारिका में वास====
इन सब कुचक्रों से पीड़ित होकर मीराबाई अंतत: [[मेवाड़]] छोड़कर मेड़ता आ गईं, लेकिन यहाँ भी उनका स्वछंद व्यवहार स्वीकार नहीं किया गया। अब वे तीर्थयात्रा पर निकल पड़ीं और अंतत: [[द्वारिका]] में बस गईं। वे मंदिरों में जाकर वहाँ मौजूद कृष्ण भक्तों के सामने [[कृष्ण]] की मूर्ति के आगे नाचती रहती थीं।
इन सब कुचक्रों से पीड़ित होकर मीराबाई अंतत: [[मेवाड़]] छोड़कर मेड़ता आ गईं, लेकिन यहाँ भी उनका स्वछंद व्यवहार स्वीकार नहीं किया गया। अब वे तीर्थयात्रा पर निकल पड़ीं और अंतत: [[द्वारिका]] में बस गईं। वे मंदिरों में जाकर वहाँ मौजूद कृष्ण भक्तों के सामने [[कृष्ण]] की मूर्ति के आगे नाचती रहती थीं।
==मान्यताएँ==
==मान्यताएँ==
[[Image:Mirabai-2.jpg|thumb|300px|[[केशी घाट वृन्दावन|केशी घाट]], [[वृन्दावन]]]]
[[Image:Mirabai-2.jpg|thumb|300px|[[केशी घाट वृन्दावन|केशी घाट]], [[वृन्दावन]]]]
एक ऐसी मान्यता है कि मीराबाई के मन में [[श्रीकृष्ण]] के प्रति जो प्रेम की भावना थी, वह जन्म-जन्मांतर का प्रेम था। मान्यतानुसार मीरा पूर्व जन्म में [[वृंदावन]] ([[मथुरा]]) की एक [[गोपी|गोपिका]] थीं। उन दिनों वह [[राधा]] की प्रमुख सहेलियों में से एक हुआ करती थीं और मन ही मन भगवान कृष्ण को प्रेम करती थीं। इनका [[विवाह]] एक गोप से कर दिया गया था। विवाह के बाद भी गोपिका का कृष्ण प्रेम समाप्त नहीं हुआ। सास को जब इस बात का पता चला तो उन्हें घर में बंद कर दिया। कृष्ण से मिलने की तड़प में गोपिका ने अपने प्राण त्याग दिए। बाद के समय में [[जोधपुर]] के पास मेड़ता गाँव में 1504 ई. में राठौर रतन सिंह के घर गोपिका ने मीरा के रूप में जन्म लिया। मीराबाई ने अपने एक अन्य दोहे में जन्म-जन्मांतर के प्रेम का भी उल्लेख किया है-
एक ऐसी मान्यता है कि मीराबाई के मन में [[श्रीकृष्ण]] के प्रति जो प्रेम की भावना थी, वह जन्म-जन्मांतर का प्रेम था। मान्यतानुसार मीरा पूर्व जन्म में [[वृंदावन]] ([[मथुरा]]) की एक [[गोपी|गोपिका]] थीं। उन दिनों वह [[राधा]] की प्रमुख सहेलियों में से एक हुआ करती थीं और मन ही मन भगवान कृष्ण को प्रेम करती थीं। इनका [[विवाह]] एक गोप से कर दिया गया था। विवाह के बाद भी गोपिका का कृष्ण प्रेम समाप्त नहीं हुआ। सास को जब इस बात का पता चला तो उन्हें घर में बंद कर दिया। कृष्ण से मिलने की तड़प में गोपिका ने अपने प्राण त्याग दिए। बाद के समय में [[जोधपुर]] के पास मेड़ता गाँव में 1504 ई. में राठौर रतन सिंह के घर गोपिका ने मीरा के रूप में जन्म लिया। मीराबाई ने अपने एक अन्य दोहे में जन्म-जन्मांतर के प्रेम का भी उल्लेख किया है-
<blockquote><poem>"आकुल व्याकुल फिरूं रैन दिन, विरह कलेजा खाय॥ 
<blockquote><poem>"आकुल व्याकुल फिरूं रैन दिन, विरह कलेजा खाय॥
दिवस न भूख नींद नहिं रैना, मुख के कथन न आवे बैना॥ 
दिवस न भूख नींद नहिं रैना, मुख के कथन न आवे बैना॥
कहा करूं कुछ कहत न आवै, मिल कर तपत बुझाय॥ 
कहा करूं कुछ कहत न आवै, मिल कर तपत बुझाय॥
क्यों तरसाओ अतंरजामी, आय मिलो किरपा कर स्वामी। 
क्यों तरसाओ अतंरजामी, आय मिलो किरपा कर स्वामी।
मीरा दासी जनम जनम की, परी तुम्हारे पाय॥" </poem></blockquote>
मीरा दासी जनम जनम की, परी तुम्हारे पाय॥" </poem></blockquote>


मीराबाई के मन में श्रीकृष्ण के प्रति प्रेम की उत्पत्ति से संबंधित एक अन्य कथा भी मिलती है। इस कथानुसार, एक बार एक [[साधु]] मीरा के घर पधारे। उस समय मीरा की उम्र लगभग 5-6 साल थी। साधु को मीरा की [[माँ]] ने भोजन परोसा। साधु ने अपनी झोली से श्रीकृष्ण की मूर्ति निकाली और पहले उसे भोग लगाया। मीरा माँ के साथ खड़ी होकर इस दृश्य को देख रही थीं। जब मीरा की नज़र श्रीकृष्ण की मूर्ति पर गयी तो उन्हें अपने पूर्व जन्म की सभी बातें याद आ गयीं। इसके बाद से ही मीरा कृष्ण के प्रेम में मग्न हो गयीं।<ref>{{cite web |url=http://aaptaknews.com/index.php/lifemantra-news-list/1549-2012-09-01-07-41-42|title=पिछले जन्म में भी मीरा करती थीं कृष्ण से प्रेम|accessmonthday=15 मार्च|accessyear=2013|last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language=हिन्दी}}</ref>
मीराबाई के मन में श्रीकृष्ण के प्रति प्रेम की उत्पत्ति से संबंधित एक अन्य कथा भी मिलती है। इस कथानुसार, एक बार एक [[साधु]] मीरा के घर पधारे। उस समय मीरा की उम्र लगभग 5-6 साल थी। साधु को मीरा की [[माँ]] ने भोजन परोसा। साधु ने अपनी झोली से श्रीकृष्ण की मूर्ति निकाली और पहले उसे भोग लगाया। मीरा माँ के साथ खड़ी होकर इस दृश्य को देख रही थीं। जब मीरा की नज़र श्रीकृष्ण की मूर्ति पर गयी तो उन्हें अपने पूर्व जन्म की सभी बातें याद आ गयीं। इसके बाद से ही मीरा कृष्ण के प्रेम में मग्न हो गयीं।<ref>{{cite web |url=http://aaptaknews.com/index.php/lifemantra-news-list/1549-2012-09-01-07-41-42|title=पिछले जन्म में भी मीरा करती थीं कृष्ण से प्रेम|accessmonthday=15 मार्च|accessyear=2013|last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language=हिन्दी}}</ref>
====जीव गोस्वामी से भेंट====
====जीव गोस्वामी से भेंट====
एक प्रचलित कथा के अनुसार मीराबाई [[वृंदावन]] में भक्त शिरोमणी जीव गोस्वामी के दर्शन के लिये गईं। गोस्वामी जी सच्चे [[साधु]] होने के कारण स्त्रियों को देखना भी अनुचित समझते थे। उन्होंने मीराबाई से मिलने से मना कर दिया और अन्दर से ही कहला भेजा कि- "हम स्त्रियों से नहीं मिलते"। इस पर मीराबाई का उत्तर बडा मार्मिक था। उन्होंने कहा कि "वृंदावन में [[श्रीकृष्ण]] ही एक पुरुष हैं, यहाँ आकर जाना कि उनका एक और प्रतिद्वन्द्वी पैदा हो गया है"। मीराबाई का ऐसा मधुर और मार्मिक उत्तर सुन कर जीव गोस्वामी नंगे पैर बाहर निकल आए और बडे प्रेम से उनसे मिले।<ref name="ab"/> इस कथा का उल्लेख सर्वप्रथम प्रियादास के कवित्तों में मिलता है-
एक प्रचलित कथा के अनुसार मीराबाई [[वृंदावन]] में भक्त शिरोमणी जीव गोस्वामी के दर्शन के लिये गईं। गोस्वामी जी सच्चे [[साधु]] होने के कारण स्त्रियों को देखना भी अनुचित समझते थे। उन्होंने मीराबाई से मिलने से मना कर दिया और अन्दर से ही कहला भेजा कि- "हम स्त्रियों से नहीं मिलते"। इस पर मीराबाई का उत्तर बडा मार्मिक था। उन्होंने कहा कि "वृंदावन में [[श्रीकृष्ण]] ही एक पुरुष हैं, यहाँ आकर जाना कि उनका एक और प्रतिद्वन्द्वी पैदा हो गया है"। मीराबाई का ऐसा मधुर और मार्मिक उत्तर सुन कर जीव गोस्वामी नंगे पैर बाहर निकल आए और बडे प्रेम से उनसे मिले।<ref name="ab"/> इस कथा का उल्लेख सर्वप्रथम प्रियादास के कवित्तों में मिलता है-
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मेरे तो गिरीधर गोपाल दूसरा न कोय।
मेरे तो गिरीधर गोपाल दूसरा न कोय।
गुरु हमारे रैदास जी सरनन चित सोय।।"</poem></blockquote>
गुरु हमारे रैदास जी सरनन चित सोय।।"</poem></blockquote>
इस प्रकार मीराबाई की वाणी से स्पष्ट है कि वह गुरु रविदास के समकालीन संत श्रेणी में आती थीं और गुरु रविदास को ही उन्होंने गुरु की उपाधि प्रदान की थी। अतः मीराबाई गुरु रविदास की विधिवत शिष्या बनीं और साथ ही नाम सबद, संगीत व तंबूरा, जिसे मीराबाई बजाती थीं, गुरु रविदास से ही पाया था। इसीलिए सम्भवत: यह लगता है कि गुरु दक्षिणा के रूप में उन्होंने [[राजस्थान]] के [[चित्तौड़गढ़]] में 'रविदास छत्तरी' का निर्माण करवाया था। मीराबाई ने भी अपनी वाणी को [[राग|रागों]] में ही उच्चारित किया है, जिसमें अधिकतर शब्दों में भैरवी राग को देखा जा सकता है।
==ग्रन्थ रचना==
==ग्रन्थ रचना==
मीराबाई ने चार ग्रन्थों की भी रचना की थी-
मीराबाई ने चार ग्रन्थों की भी रचना की थी-
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#'राग सोरठ'
#'राग सोरठ'
इसके अतिरिक्त उनके गीतों का संकलन "मीराबाई की पदावली" नामक [[ग्रन्थ]] में किया गया है, जिसमें निम्नलिखित खंड प्रमुख हैं-
इसके अतिरिक्त उनके गीतों का संकलन "मीराबाई की पदावली" नामक [[ग्रन्थ]] में किया गया है, जिसमें निम्नलिखित खंड प्रमुख हैं-
#नरसी जी का मायरा
#नरसी जी का मायरा
#मीराबाई का मलार या मलार राग
#मीराबाई का मलार या मलार राग
#गर्बा गीता या मीराँ की गरबी
#गर्बा गीता या मीराँ की गरबी
#फुटकर पद
#फुटकर पद
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# [[पायो जी म्हें तो राम रतन धन पायो -मीरां|पायो जी म्हें तो राम रतन धन पायो]]  
# [[पायो जी म्हें तो राम रतन धन पायो -मीरां|पायो जी म्हें तो राम रतन धन पायो]]  
# [[मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई -मीरां|मेरे तो गिरिधर गोपाल दूसरौ न कोई]]
# [[मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई -मीरां|मेरे तो गिरिधर गोपाल दूसरौ न कोई]]
==मीराबाई की साधु-संतों से संगत==
डॉ. ओमप्रकाश त्रिपाठी की पुस्तक "भक्तिकाल के प्रमुख कवियों का पुनर्मूल्याँकन" में लिखा है कि मीराबाई की [[भक्ति]] मात्र एकांगिक नहीं थी। अनेक विद्वानों का मत है कि वह एक सामाजिक चुनौती के रूप में प्रकट हुई थीं। मीरा ने अनुभव किया कि राणा अत्याचारी है और दुर्भावनाग्रस्त भी है। इसकी प्रतिक्रियावश उनके मन में विद्रोह भाव जागा। इसीलिए उन्होंने राज-मर्यादा को त्याग कर सन्तों का सानिध्य ग्रहण किया। मीरा सन्तों के साथ वन-वन भटकने और नाचने-गाने लगी थीं, जिससे राज परिवार में उनकी स्थिति विवादास्पद हो गई। तत्कालीन सामन्ती मर्यादा तथा राजकीय व्यवस्था के अनुसार जितनी वर्जनाएँ की गयीं, मीरा का विद्रोह उतना ही बिगड़ता गया।<ref name="ac"/> उन्होंने अनेक पदों में यह घोषणा की है कि वे किसी भी स्थिति में सन्तों का साथ नहीं छोड़ेगी, जैसे-
<blockquote><poem>मीरा की प्रीति लगी संतन सूं साधु हमारी आत्मा
संतन पर तन मन वारूं, संतन संगि बैठि-बैठि लोक लाज खोई
साथ संग भटकी, सब संतन के मन भायी
रमरया साधा री साथा, साधु हमारे सिर थड़ी
साधु मायर नाथ, साधु थारे संग सुख पाहयो
साथा करस्यां साथ की, साथा मण्डल साथ की
साथा संग रहूंगी, साधु ही पीहर सासुरो
म्हारे साथा से इक्त्यार, मीरा के हरिजन मिल्या
सन्ता हाथ बिकानी, सन्ता री संगति नहीं छोड़ूं</poem></blockquote>
मीराबाई पर की गयी सख़्ती का मूल कारण था, उनका साधु-सन्तों के साथ उठना-बैठना। लगभग सभी संत [[शूद्र]] वर्ण से सम्बन्ध रखने वाले थे। इसी बात की पुष्टि में मीरा आगे कहती हैं-
<blockquote>"मैं तो नाहीं रहूँ, राणा जी थारा देश में।"</blockquote>
====भाषा====
====भाषा====
[[चित्र:Mirabai-1.jpg|thumb|250px|[[मीराबाई का मन्दिर वृन्दावन|मीराबाई का मन्दिर]], [[वृन्दावन]]]]
[[चित्र:Mirabai-1.jpg|thumb|250px|[[मीराबाई का मन्दिर वृन्दावन|मीराबाई का मन्दिर]], [[वृन्दावन]]]]
भाषा को लेकर भी विभिन्न विद्वानों के भिन्न-भिन्न मत हैं। [[मारवाड़ी भाषा]] में स्थान की अन्य भाषा-छवियाँ भी विद्यामान हैं। फिर मीराबाई की [[भाषा]] में गुजराती, ब्रज और [[पंजाबी भाषा]] के प्रयोग भी मिलते भी हैं। मीराबाई अन्य संतों [[नामदेव]], [[कबीर]], [[रैदास]] आदि की भाँति मिली-जुली भाषा में अपने भावों को व्यक्त करती हैं। उनके पदों की संख्या भी अभी तक सुनिश्चित नहीं की जा सकी है। खोज एवं शोध अभी तक जारी है। कुछ समय पूर्व 'लूर' का मीराँ विशेषांक प्रकाशित हुआ था। इसमें मीराबाई द्वारा गाए गए 41 पद दिए गए हैं। इन्हें 'हरजस' नाम दिया गया है, जिन्हें लोक द्वारा विभिन्न अवसरों पर गाया जाता है। कुछ शब्दों के अर्थ भी स्पष्ट किए गए हैं। अतः कहना होगा कि इस दिशा में शोध कार्य अभी जारी है। कोई सर्वमान्य, स्वीकार्य निर्णय अभी शेष है।<ref>{{cite web |url=http://pustak.org/bs/home.php?bookid=4448|title=पदावली |accessmonthday=15 मार्च|accessyear=2013 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language=हिन्दी}}</ref>
भाषा को लेकर भी विभिन्न विद्वानों के भिन्न-भिन्न मत हैं। [[मारवाड़ी भाषा]] में स्थान की अन्य भाषा-छवियाँ भी विद्यामान हैं। फिर मीराबाई की [[भाषा]] में गुजराती, ब्रज और [[पंजाबी भाषा]] के प्रयोग भी मिलते भी हैं। मीराबाई अन्य संतों [[नामदेव]], [[कबीर]], [[रैदास]] आदि की भाँति मिली-जुली भाषा में अपने भावों को व्यक्त करती हैं। उनके पदों की संख्या भी अभी तक सुनिश्चित नहीं की जा सकी है। खोज एवं शोध अभी तक जारी है। कुछ समय पूर्व 'लूर' का मीराँ विशेषांक प्रकाशित हुआ था। इसमें मीराबाई द्वारा गाए गए 41 पद दिए गए हैं। इन्हें 'हरजस' नाम दिया गया है, जिन्हें लोक द्वारा विभिन्न अवसरों पर गाया जाता है। कुछ शब्दों के अर्थ भी स्पष्ट किए गए हैं। अतः कहना होगा कि इस दिशा में शोध कार्य अभी जारी है। कोई सर्वमान्य, स्वीकार्य निर्णय अभी शेष है।<ref>{{cite web |url=http://pustak.org/bs/home.php?bookid=4448|title=पदावली |accessmonthday=15 मार्च|accessyear=2013 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language=हिन्दी}}</ref>
==मीराबाई द्वारा प्रयुक्त सांगितिक पद्धति==
[[संगीत]] की दृष्टि से मीराबाई [[मध्य काल]] में प्रचलित संगीत की राग-रागिनी पद्धति से भली प्रकार से परिचत थीं तथा वाणी का उच्चारण रागों में करना इसका सबसे बड़ा प्रमाण है, जो कि वर्तमान में शोध का विषय बन कर सामने आया है। गुरु प्यारी साध संगत जी, ऐसा सर्वविदित है कि समस्त जगत नाद के अधीन है तथा संगीत नाद का सबसे बड़ा रूप है, जिसे मीराबाई ने 45 रागों के रूप में अपनाते हुए अपनी वाणी को रागों में बद्धित किया और ईश्वर की प्राप्ति में दोनों नादों का प्रयोग किया। नाद दो प्रकार के माने गए हैं-
#अनाहत नाद - इसे संतो ने 'अनहत सबद बजावणया' की संज्ञा दी। यह योगियों द्वारा [[ध्यान]] से मन मस्तिष्क में सुनी जाती है, जिसे मध्य काल के संतों ने खोजा है।
#आहत नाद - यह नाद आघात द्वारा पैदा होती है। संगीत इसी का एक रूप है। इसीलिए मीराबाई ने नाम शब्दों से ध्यान लगाया तथा अपनी वाणी को संगीत (रागों) के रूप में उच्चारित किया।
संगीत को ऐतिहासिक दृष्टि से देखा जाए तो यह [[मोहनजोदड़ो]], [[हड़प्पा संस्कृति]] तथा [[हिन्दू देवी-देवता|देवी-देवताओं]] के काल से चला आ रहा अध्यात्म और मनोरंजन का आलौकिक साधन है, जिसे अति प्राचीन काल और प्राचीन काल से लेकर जन-साधारण और विद्वानों द्वारा प्रर्युक्त कई विधाओं को जन्म मिला तथा आते-आते [[मध्य काल]] में यह राग-रागिनी पद्धति बनकर सामने आया, जोकि तत्कालीन समय के प्रत्येक संगीत विद्वान द्वारा अपनाई गई पद्धति थी। इसी प्रकार मध्य काल के संत-महात्माओं ने भी गायन के लिए इसी पद्धति का प्रयोग कर अपनी वाणी रचनाओं को उद्धृत किया। यह पद्धति मुख्यतः सांगीतिक ग्रन्थों में शिव-मत, [[भरतमुनि|भरत]], कल्लिनाथ, हनुमत, [[नारद मुनि]], पुण्डरीक विठ्ठल आदि द्वारा अपनाई गई थी। अतः संगीत को अपनाना मीराबाई की संगीत जगत के लिए सराहनीय योगदान है। इस काल में कई महान संत, जैसे- [[संत रविदास]], [[संत कबीर]], संत सदना, संत सैन, [[संत नामदेव]], संत धन्ना, संत बैणी, संत भीखा, संत पीपा, [[त्रिलोचन|संत त्रिलोचन]] तथा [[जयदेव|संत जयदेव]] आदि हुए, जो कि अधिकतर निम्न संप्रदाय से संबंध रखने वाले थे। इन सभी संतों ने सामाजिक कुरीतियों का खण्डन कर भेदभावों का भी विरोध किया जो कि समाज को दीमक के समान खोखला करने पर तुले हुए थे। इन सभी संतों ने अपनी वाणी को रागों में उच्चारा है। मीराबाई की वाणी लगभग 45 रागों में उपलब्ध होती है-
==आध्यात्म स्तम्भ==
==आध्यात्म स्तम्भ==
संत कवयित्री मीराबाई ने अपने हृदय-मन्दिर में इष्ट श्रीकृष्ण की मूरत स्थापित कर बचपन से ही उनकी [[पूजा]]-अराधना और अर्चना आरंभ कर दी थी। यहीं से उनके भाव-विह्वल भक्ति के गीत फूटे और बहे, जिसमें युग-युग की मानवता अपनी आत्मिक प्यास बुझाती रही है। कृष्ण के प्रति प्रेम-भक्ति उनके नारी-सुलभ स्वभाव एवं वृत्तियों के अति अनुकूल भी थी और दैव-योग से मीरा इसी दिशा में प्रवृत्त होती गईं। भौतिक जीवन और घटनाक्रमों ने इस वेग को और भी बढ़ाया तथा दिशा को साधा। वह पारिवारिक संबन्धों से मुक्त होकर उन्मुक्त हुई महाभाव-हिलोरों पर उनमत्त हो झूलती रहीं। मीराबाई ने स्वयं मुक्त होकर अपने समय और युग की नारी को भी और देश-समाज के मानव एवं मानवता को भी मुक्त किया। मध्य युग में ही आधुनिक मानव की मुक्ति का बिगुल बजाने वाली स्त्री संत, आधुनिकता के नारी-विमर्श का बीज-वपन करने वाली मीराबाई अपने जीवन में तथा मृत्यु में भी मुक्त रहीं। वास्तव में मीरा वर्तमान भौतिक अंधकार के विरुद्ध भारतीय महाभाव-प्रेम एवं अध्यात्म का दीप स्तंभ हैं। भौतिक वैश्वीकरण एवं बाजारीकरण के विपरीत मानव की मुक्ति, समानता, गरिमा के आग्रहों को भावनात्मक सार्वभौमिकता देने वाली मीराबाई आध्यात्मिक वैश्वीकरण एवं विश्वमानवता का अलख जगाने वाली महान मानवी है।
संत कवयित्री मीराबाई ने अपने हृदय-मन्दिर में इष्ट श्रीकृष्ण की मूरत स्थापित कर बचपन से ही उनकी [[पूजा]]-अराधना और अर्चना आरंभ कर दी थी। यहीं से उनके भाव-विह्वल भक्ति के गीत फूटे और बहे, जिसमें युग-युग की मानवता अपनी आत्मिक प्यास बुझाती रही है। कृष्ण के प्रति प्रेम-भक्ति उनके नारी-सुलभ स्वभाव एवं वृत्तियों के अति अनुकूल भी थी और दैव-योग से मीरा इसी दिशा में प्रवृत्त होती गईं। भौतिक जीवन और घटनाक्रमों ने इस वेग को और भी बढ़ाया तथा दिशा को साधा। वह पारिवारिक संबन्धों से मुक्त होकर उन्मुक्त हुई महाभाव-हिलोरों पर उनमत्त हो झूलती रहीं। मीराबाई ने स्वयं मुक्त होकर अपने समय और युग की नारी को भी और देश-समाज के मानव एवं मानवता को भी मुक्त किया। मध्य युग में ही आधुनिक मानव की मुक्ति का बिगुल बजाने वाली स्त्री संत, आधुनिकता के नारी-विमर्श का बीज-वपन करने वाली मीराबाई अपने जीवन में तथा मृत्यु में भी मुक्त रहीं। वास्तव में मीरा वर्तमान भौतिक अंधकार के विरुद्ध भारतीय महाभाव-प्रेम एवं अध्यात्म का दीप स्तंभ हैं। भौतिक वैश्वीकरण एवं बाजारीकरण के विपरीत मानव की मुक्ति, समानता, गरिमा के आग्रहों को भावनात्मक सार्वभौमिकता देने वाली मीराबाई आध्यात्मिक वैश्वीकरण एवं विश्वमानवता का अलख जगाने वाली महान मानवी है।
==मृत्यु==
==मृत्यु==
मीराबाई अपने युग से लेकर आज तक लोकप्रियता के शिखर पर आरूढ हैं। उनके गीत या भजन आज भी [[हिन्दी]]-अहिन्दी भाषी भारतवासियों के होठों पर विराजमान हैं। मीरा के कई पद हिन्दी फ़िल्मी गीतों का हिस्सा भी बने। वे बहुत दिनों तक [[वृन्दावन]] ([[मथुरा]], [[उत्तर प्रदेश]]) में रहीं और फिर [[द्वारिका]] चली गईं। जहाँ संवत 1560 ई. में वे भगवान श्रीकृष्ण कि मूर्ति मे समा गईं। जब उदयसिंह राजा बने तो उन्हें यह जानकर बहुत निराशा हुई कि उनके परिवार मे एक महान भक्त के साथ कैसा दुर्व्यवहार हुआ। तब उन्होंने अपने राज्य के कुछ [[ब्राह्मण|ब्राह्मणों]] को मीराबाई को वापस लाने के लिए द्वारका भेजा। जब मीराबाई आने को राजी नहीं हुईं तो ब्राह्मण जिद करने लगे कि वे भी वापस नहीं जायेंगे। उस समय द्वारका मे '[[कृष्ण जन्माष्टमी]]' आयोजन की तैयारी चल रही थी। मीराबाई ने कहा कि वे आयोजन मे भाग लेकर चलेंगी। उस दिन उत्सव चल रहा था। भक्त गण भजन मे मग्न थे। मीरा नाचते-नाचते श्री रनछोड़राय जी के मन्दिर के गर्भग्रह में प्रवेश कर गईं और मन्दिर के कपाट बन्द हो गये। जब द्वार खोले गये तो देखा कि मीरा वहाँ नहीं थी। उनका चीर मूर्ति के चारों ओर लिपट गया था और मूर्ति अत्यन्त प्रकाशित हो रही थी। मीरा मूर्ति में ही समा गयी थीं। मीराबाई का शरीर भी कहीं नहीं मिला। उनका उनके प्रियतम प्यारे से मिलन हो गया था।<ref name="ab"/>
मीराबाई अपने युग से लेकर आज तक लोकप्रियता के शिखर पर आरूढ हैं। उनके गीत या भजन आज भी [[हिन्दी]]-अहिन्दी भाषी भारतवासियों के होठों पर विराजमान हैं। मीरा के कई पद हिन्दी फ़िल्मी गीतों का हिस्सा भी बने। वे बहुत दिनों तक [[वृन्दावन]] ([[मथुरा]], [[उत्तर प्रदेश]]) में रहीं और फिर [[द्वारिका]] चली गईं। जहाँ संवत 1560 ई. में वे भगवान श्रीकृष्ण कि मूर्ति मे समा गईं। जब उदयसिंह राजा बने तो उन्हें यह जानकर बहुत निराशा हुई कि उनके परिवार मे एक महान भक्त के साथ कैसा दुर्व्यवहार हुआ। तब उन्होंने अपने राज्य के कुछ [[ब्राह्मण|ब्राह्मणों]] को मीराबाई को वापस लाने के लिए द्वारका भेजा। जब मीराबाई आने को राजी नहीं हुईं तो ब्राह्मण जिद करने लगे कि वे भी वापस नहीं जायेंगे। उस समय द्वारका मे '[[कृष्ण जन्माष्टमी]]' आयोजन की तैयारी चल रही थी। मीराबाई ने कहा कि वे आयोजन मे भाग लेकर चलेंगी। उस दिन उत्सव चल रहा था। भक्त गण भजन मे मग्न थे। मीरा नाचते-नाचते श्री रनछोड़राय जी के मन्दिर के गर्भग्रह में प्रवेश कर गईं और मन्दिर के कपाट बन्द हो गये। जब द्वार खोले गये तो देखा कि मीरा वहाँ नहीं थी। उनका चीर मूर्ति के चारों ओर लिपट गया था और मूर्ति अत्यन्त प्रकाशित हो रही थी। मीरा मूर्ति में ही समा गयी थीं। मीराबाई का शरीर भी कहीं नहीं मिला। उनका उनके प्रियतम प्यारे से मिलन हो गया था।<ref name="ab"/>
<blockquote><poem>जिन चरन धरथो गोबरधन गरब- मधवा- हरन।।
<blockquote><poem>जिन चरन धरथो गोबरधन गरब- मधवा- हरन।।
दास मीरा लाल गिरधर आजम तारन तरन।।</poem></blockquote>
दास मीरा लाल गिरधर आजम तारन तरन।।</poem></blockquote>

11:05, 16 मार्च 2013 का अवतरण

मीरां
मीरां
मीरां
पूरा नाम मीरांबाई
जन्म 1498
जन्म भूमि मेड़ता, राजस्थान
मृत्यु 1547
पति/पत्नी कुंवर भोजराज
कर्म भूमि वृन्दावन
मुख्य रचनाएँ बरसी का मायरा, गीत गोविंद टीका, राग गोविंद, राग सोरठ के पद
विषय कृष्णभक्ति
भाषा ब्रजभाषा
नागरिकता भारतीय
इन्हें भी देखें कवि सूची, साहित्यकार सूची
मीरांबाई की रचनाएँ

मीरांबाई अथवा मीराबाई हिन्दू आध्यात्मिक कवयित्री थीं, जिनके भगवान श्रीकृष्ण के प्रति समर्पित भजन उत्तर भारत में बहुत लोकप्रिय हैं। भजन और स्तुति की रचनाएँ कर आमजन को भगवान के और समीप पहुँचाने वाले संतों और महात्माओं में मीराबाई का स्थान सबसे ऊपर माना जाता है। मीरा का सम्बन्ध एक राजपूत परिवार से था। वे राजपूत राजकुमारी थीं, जो मेड़ता महाराज के छोटे भाई रतन सिंह की एकमात्र संतान थीं। उनकी शाही शिक्षा में संगीत और धर्म के साथ-साथ राजनीति व प्रशासन भी शामिल थे। एक साधु द्वारा बचपन में उन्हें कृष्ण की मूर्ति दिए जाने के साथ ही उनकी आजन्म कृष्ण भक्ति की शुरुआत हुई, जिनकी वह दिव्य प्रेमी के रूप में आराधना करती थीं।

जन्म तथा शिक्षा

प्रसिद्ध कृष्ण भक्त कवयित्री मीराबाई जोधपुर, राजस्थान के मेड़वा राजकुल की राजकुमारी थीं। विद्वानों में इनकी जन्म-तिथि के संबंध में मतैक्य नहीं है। कुछ विद्वान इनका जन्म 1430 ई. मानते हैं और कुछ 1498 ई.। मीराबाई मेड़ता महाराज के छोटे भाई रतन सिंह की एकमात्र संतान थीं। उनका जीवन बड़े दु:ख और कष्ट में व्यतीत हुआ था। मीरा जब केवल दो वर्ष की थीं, उनकी माता की मृत्यु हो गई। इसलिए इनके दादा राव दूदा उन्हें मेड़ता ले आए और अपनी देख-रेख में उनका पालन-पोषण किया। राव दूदा एक योद्धा होने के साथ-साथ भक्त-हृदय व्यक्ति भी थे और साधु-संतों का आना-जाना इनके यहाँ लगा ही रहता था। इसलिए मीरा बचपन से ही धार्मिक लोगों के सम्पर्क में आती रहीं। इसके साथ ही उन्होंने तीर-तलवार, जैसे- शस्त्र-चालन, घुड़सवारी, रथ-चालन आदि के साथ-साथ संगीत तथा आध्यात्मिक शिक्षा भी पाई।[1]

कृष्ण से लगाव

मीरां नृत्य के लिए घुँघरू बाँधती हुई

मीराबाई के बालमन में कृष्ण की ऐसी छवि बसी थी कि यौवन काल से लेकर मृत्यु तक उन्होंने कृष्ण को ही अपना सब कुछ माना। जोधपुर के राठौड़ रतन सिंह की इकलौती पुत्री मीराबाई का मन बचपन से ही कृष्ण-भक्ति में रम गया था। उनका कृष्ण प्रेम बचपन की एक घटना की वजह से अपने चरम पर पहुँचा था। बाल्यकाल में एक दिन उनके पड़ोस में किसी धनवान व्यक्ति के यहाँ बारात आई थी। सभी स्त्रियाँ छत से खड़ी होकर बारात देख रही थीं। मीराबाई भी बारात देखने के लिए छत पर आ गईं। बारात को देख मीरा ने अपनी माता से पूछा कि "मेरा दूल्हा कौन है?" इस पर मीराबाई की माता ने उपहास में ही भगवान श्रीकृष्ण की मूर्ति के तरफ़ इशारा करते हुए कह दिया कि "यही तुम्हारे दुल्हा हैं"। यह बात मीराबाई के बालमन में एक गाँठ की तरह समा गई और अब वे कृष्ण को ही अपना पति समझने लगीं।

विवाह

मीराबाई के अद्वितीय गुणों को देख कर ही मेवाड़ नरेश राणा संग्राम सिंह ने मीराबाई के घर अपने बड़े बेटे भोजराज के लिए विवाह का प्रस्ताव भेजा। यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया गया और भोजराज के साथ मीरा का विवाह हो गया। इस विवाह के लिए पहले तो मीराबाई ने मना कर दिया था, लेकिन परिवार वालों के अत्यधिक बल देने पर वह तैयार हो गईं। वह फूट-फूट कर रोने लगीं और विदाई के समय श्रीकृष्ण की वही मूर्ति अपने साथ ले गईं, जिसे उनकी माता ने उनका दुल्हा बताया था। मीराबाई ने लज्जा और परंपरा को त्याग कर अनूठे प्रेम और भक्ति का परिचय दिया।

पति की मृत्यु

विवाह के दस वर्ष बाद ही मीराबाई के पति भोजरात का निधन हो गया। सम्भवत: उनके पति की युद्धोपरांत घावों के कारण मृत्यु हो गई थी। पति की मृत्यु के बाद ससुराल में मीराबाई पर कई अत्याचार किए गए। तत्कालीन समाज में मीराबाई को एक विद्रोहिणी माना गया। उनके धार्मिक क्रिया-कलाप राजपूत राजकुमारी और विधवा के लिए स्थापित नियमों के अनुकूल नहीं थे। वह अपना अधिकांश समय कृष्ण को समर्पित निजी मंदिर में और भारत भर से आये साधुओं व तीर्थ यात्रियों से मिलने तथा भक्ति पदों की रचना करने में व्यतीत करती थीं।

हत्या के प्रयास

पति की मृत्यु के बाद मीराबाई की भक्ति दिन-प्रतिदिन और भी बढ़ती गई। वे मंदिरों में जाकर वहाँ मौजूद कृष्ण भक्तों के सामने कृष्णजी की मूर्ति के आगे नाचती रहती थीं। मीरा के लिए आनन्द का माहौल तो तब बना, जब उनके कहने पर राजा महल में ही कृष्ण का एक मंदिर बनवा देते हैं। महल में मंदिर बन जाने से भक्ति का ऐसा वातावरण बनता है कि वहाँ साधु-संतों का आना-जाना शुरू हो जाता है। मीराबाई के देवर राणा विक्रमजीत सिंह को यह सब बुरा लगता है। ऊधा जी भी मीराबाई को समझाते हैं, लेकिन मीरा दीन-दुनिया भूल कर भगवान श्रीकृष्ण में रमती जाती हैं और वैराग्य धारण कर जोगिया बन जाती हैं।[2] भोजराज के निधन के बाद सिंहासन पर बैठने वाले विक्रमजीत सिंह को मीराबाई का साधु-संतों के साथ उठना-बैठना पसन्द नहीं था। मीराबाई को मारने के कम से कम दो प्रयासों का चित्रण उनकी कविताओं में हुआ है। एक बार फूलों की टोकरी में एक विषेला साँप भेजा गया, लेकिन टोकरी खोलने पर उन्हें कृष्ण की मूर्ति मिली। एक अन्य अवसर पर उन्हें विष का प्याला दिया गया, लेकिन उसे पीकर भी मीराबाई को कोई हानि नहीं पहुँची।

द्वारिका में वास

इन सब कुचक्रों से पीड़ित होकर मीराबाई अंतत: मेवाड़ छोड़कर मेड़ता आ गईं, लेकिन यहाँ भी उनका स्वछंद व्यवहार स्वीकार नहीं किया गया। अब वे तीर्थयात्रा पर निकल पड़ीं और अंतत: द्वारिका में बस गईं। वे मंदिरों में जाकर वहाँ मौजूद कृष्ण भक्तों के सामने कृष्ण की मूर्ति के आगे नाचती रहती थीं।

मान्यताएँ

केशी घाट, वृन्दावन

एक ऐसी मान्यता है कि मीराबाई के मन में श्रीकृष्ण के प्रति जो प्रेम की भावना थी, वह जन्म-जन्मांतर का प्रेम था। मान्यतानुसार मीरा पूर्व जन्म में वृंदावन (मथुरा) की एक गोपिका थीं। उन दिनों वह राधा की प्रमुख सहेलियों में से एक हुआ करती थीं और मन ही मन भगवान कृष्ण को प्रेम करती थीं। इनका विवाह एक गोप से कर दिया गया था। विवाह के बाद भी गोपिका का कृष्ण प्रेम समाप्त नहीं हुआ। सास को जब इस बात का पता चला तो उन्हें घर में बंद कर दिया। कृष्ण से मिलने की तड़प में गोपिका ने अपने प्राण त्याग दिए। बाद के समय में जोधपुर के पास मेड़ता गाँव में 1504 ई. में राठौर रतन सिंह के घर गोपिका ने मीरा के रूप में जन्म लिया। मीराबाई ने अपने एक अन्य दोहे में जन्म-जन्मांतर के प्रेम का भी उल्लेख किया है-

"आकुल व्याकुल फिरूं रैन दिन, विरह कलेजा खाय॥
दिवस न भूख नींद नहिं रैना, मुख के कथन न आवे बैना॥
कहा करूं कुछ कहत न आवै, मिल कर तपत बुझाय॥
क्यों तरसाओ अतंरजामी, आय मिलो किरपा कर स्वामी।
मीरा दासी जनम जनम की, परी तुम्हारे पाय॥"

मीराबाई के मन में श्रीकृष्ण के प्रति प्रेम की उत्पत्ति से संबंधित एक अन्य कथा भी मिलती है। इस कथानुसार, एक बार एक साधु मीरा के घर पधारे। उस समय मीरा की उम्र लगभग 5-6 साल थी। साधु को मीरा की माँ ने भोजन परोसा। साधु ने अपनी झोली से श्रीकृष्ण की मूर्ति निकाली और पहले उसे भोग लगाया। मीरा माँ के साथ खड़ी होकर इस दृश्य को देख रही थीं। जब मीरा की नज़र श्रीकृष्ण की मूर्ति पर गयी तो उन्हें अपने पूर्व जन्म की सभी बातें याद आ गयीं। इसके बाद से ही मीरा कृष्ण के प्रेम में मग्न हो गयीं।[3]

जीव गोस्वामी से भेंट

एक प्रचलित कथा के अनुसार मीराबाई वृंदावन में भक्त शिरोमणी जीव गोस्वामी के दर्शन के लिये गईं। गोस्वामी जी सच्चे साधु होने के कारण स्त्रियों को देखना भी अनुचित समझते थे। उन्होंने मीराबाई से मिलने से मना कर दिया और अन्दर से ही कहला भेजा कि- "हम स्त्रियों से नहीं मिलते"। इस पर मीराबाई का उत्तर बडा मार्मिक था। उन्होंने कहा कि "वृंदावन में श्रीकृष्ण ही एक पुरुष हैं, यहाँ आकर जाना कि उनका एक और प्रतिद्वन्द्वी पैदा हो गया है"। मीराबाई का ऐसा मधुर और मार्मिक उत्तर सुन कर जीव गोस्वामी नंगे पैर बाहर निकल आए और बडे प्रेम से उनसे मिले।[2] इस कथा का उल्लेख सर्वप्रथम प्रियादास के कवित्तों में मिलता है-

'वृन्दावन आई जीव गुसाई जू सो मिल झिली, तिया मुख देखबे का पन लै छुटायौ।

मीरा का पत्र

अपने परिवार वालों के व्यवहार से पीड़ित और फिर परेशान होकर मीराबाई द्वारका और फिर वृंदावन आ गई थीं। वह जहाँ भी जाती थीं, वहाँ लोगों का सम्मान मिलता। लोग उन्हें देवियों के जैसा प्यार और सम्मान देते थे।[4] इसी दौरान उन्होंने तुलसीदास को एक पत्र भी लिखा था-

स्वस्ति श्री तुलसी कुलभूषण दूषन- हरन गोसाई।
बारहिं बार प्रनाम करहूँ अब हरहूँ सोक- समुदाई।।
घर के स्वजन हमारे जेते सबन्ह उपाधि बढ़ाई।
साधु- सग अरु भजन करत माहिं देत कलेस महाई।।
मेरे माता- पिता के समहौ, हरिभक्तन्ह सुखदाई।
हमको कहा उचित करिबो है, सो लिखिए समझाई।।

मीराबाई के पत्र का जबाव गोस्वामी तुलसीदास जी ने इस प्रकार दिया था-

जाके प्रिय न राम बैदेही।
सो नर तजिए कोटि बैरी सम जद्यपि परम सनेहा।।
नाते सबै राम के मनियत सुह्मद सुसंख्य जहाँ लौ।
अंजन कहा आँखि जो फूटे, बहुतक कहो कहां लौ।।

गुरु

मीरां नृत्य करती हुई

मीराबाई संत रविदास की महान शिष्या तथा संत कवयित्री थीं। अधिकतर विद्वानों ने मीराबाई को गुरु रविदास जी की शिष्या स्वीकार किया है।[1] काशीनाथ उपाध्याय ने भी लिखा है- "इस विषय पर कोई सन्देह नहीं किया जा सकता कि मीराबाई गुरु रविदास जी की शिष्या थीं, क्योंकि मीराबाई ने स्वयं अपने पदों में बार-बार गुरु रविदास जी को अपना गुरु बताया है।"

"खोज फिरूं खोज वा घर को, कोई न करत बखानी।
सतगुरु संत मिले रैदासा, दीन्ही सुरत सहदानी।।
वन पर्वत तीरथ देवालय, ढूंढा चहूं दिशि दौर।
मीरा श्री रैदास शरण बिन, भगवान और न ठौर।।
मीरा म्हाने संत है, मैं सन्ता री दास।
चेतन सता सेन ये, दासत गुरु रैदास।।
मीरा सतगुरु देव की, कर बंदना आस।
जिन चेतन आतम कह्या, धन भगवान रैदास।।
गुरु रैदास मिले मोहि पूरे, धुर से कलम भिड़ी।
सतगुरु सैन दई जब आके, ज्याति से ज्योत मिलि।।
मेरे तो गिरीधर गोपाल दूसरा न कोय।
गुरु हमारे रैदास जी सरनन चित सोय।।"

इस प्रकार मीराबाई की वाणी से स्पष्ट है कि वह गुरु रविदास के समकालीन संत श्रेणी में आती थीं और गुरु रविदास को ही उन्होंने गुरु की उपाधि प्रदान की थी। अतः मीराबाई गुरु रविदास की विधिवत शिष्या बनीं और साथ ही नाम सबद, संगीत व तंबूरा, जिसे मीराबाई बजाती थीं, गुरु रविदास से ही पाया था। इसीलिए सम्भवत: यह लगता है कि गुरु दक्षिणा के रूप में उन्होंने राजस्थान के चित्तौड़गढ़ में 'रविदास छत्तरी' का निर्माण करवाया था। मीराबाई ने भी अपनी वाणी को रागों में ही उच्चारित किया है, जिसमें अधिकतर शब्दों में भैरवी राग को देखा जा सकता है।

ग्रन्थ रचना

मीराबाई ने चार ग्रन्थों की भी रचना की थी-

  1. 'बरसी का मायरा'
  2. 'गीत गोविंद टीका'
  3. 'राग गोविंद'
  4. 'राग सोरठ'

इसके अतिरिक्त उनके गीतों का संकलन "मीराबाई की पदावली" नामक ग्रन्थ में किया गया है, जिसमें निम्नलिखित खंड प्रमुख हैं-

  1. नरसी जी का मायरा
  2. मीराबाई का मलार या मलार राग
  3. गर्बा गीता या मीराँ की गरबी
  4. फुटकर पद
  5. सतभामानु रूसण या सत्यभामा जी नुं रूसणं
  6. रुक्मणी मंगल
  7. नरसिंह मेहता की हुंडी
  8. चरित

पद

मीराबाई की महानता और उनकी लोकप्रियता उनके पदों और रचनाओं की वजह से भी है। ये पद और रचनाएँ राजस्थानी, ब्रज और गुजराती भाषाओं में मिलते हैं। हृदय की गहरी पीड़ा, विरहानुभूति और प्रेम की तन्मयता से भरे हुए मीराबाई के पद अनमोल संपत्ति हैं। आँसुओं से भरे ये पद गीतिकाव्य के उत्तम नमूने हैं। मीराबाई ने अपने पदों में 'श्रृंगार रस' और 'शांत रस' का प्रयोग विशेष रूप से किया है। भावों की सुकुमारता और निराडंबरी सहज शैली की सरसता के कारण मीराबाई की व्यथासिक्त पदावली बरबस ही सबको आकर्षित कर लेती है। मीराबाई ने भक्ति को एक नया आयाम दिया है। एक ऐसा स्थान जहाँ भगवान ही इंसान का सब कुछ होता है। संसार के सभी लोभ उसे मोह से विचलित नहीं कर सकते। एक अच्छा-खासा राजपाट होने के बाद भी मीराबाई वैरागी बनी रहीं। उनकी कृष्ण भक्ति एक अनूठी मिसाल रही है।

  1. पायो जी म्हें तो राम रतन धन पायो
  2. मेरे तो गिरिधर गोपाल दूसरौ न कोई

मीराबाई की साधु-संतों से संगत

डॉ. ओमप्रकाश त्रिपाठी की पुस्तक "भक्तिकाल के प्रमुख कवियों का पुनर्मूल्याँकन" में लिखा है कि मीराबाई की भक्ति मात्र एकांगिक नहीं थी। अनेक विद्वानों का मत है कि वह एक सामाजिक चुनौती के रूप में प्रकट हुई थीं। मीरा ने अनुभव किया कि राणा अत्याचारी है और दुर्भावनाग्रस्त भी है। इसकी प्रतिक्रियावश उनके मन में विद्रोह भाव जागा। इसीलिए उन्होंने राज-मर्यादा को त्याग कर सन्तों का सानिध्य ग्रहण किया। मीरा सन्तों के साथ वन-वन भटकने और नाचने-गाने लगी थीं, जिससे राज परिवार में उनकी स्थिति विवादास्पद हो गई। तत्कालीन सामन्ती मर्यादा तथा राजकीय व्यवस्था के अनुसार जितनी वर्जनाएँ की गयीं, मीरा का विद्रोह उतना ही बिगड़ता गया।[1] उन्होंने अनेक पदों में यह घोषणा की है कि वे किसी भी स्थिति में सन्तों का साथ नहीं छोड़ेगी, जैसे-

मीरा की प्रीति लगी संतन सूं साधु हमारी आत्मा
संतन पर तन मन वारूं, संतन संगि बैठि-बैठि लोक लाज खोई
साथ संग भटकी, सब संतन के मन भायी
रमरया साधा री साथा, साधु हमारे सिर थड़ी
साधु मायर नाथ, साधु थारे संग सुख पाहयो
साथा करस्यां साथ की, साथा मण्डल साथ की
साथा संग रहूंगी, साधु ही पीहर सासुरो
म्हारे साथा से इक्त्यार, मीरा के हरिजन मिल्या
सन्ता हाथ बिकानी, सन्ता री संगति नहीं छोड़ूं

मीराबाई पर की गयी सख़्ती का मूल कारण था, उनका साधु-सन्तों के साथ उठना-बैठना। लगभग सभी संत शूद्र वर्ण से सम्बन्ध रखने वाले थे। इसी बात की पुष्टि में मीरा आगे कहती हैं-

"मैं तो नाहीं रहूँ, राणा जी थारा देश में।"

भाषा

मीराबाई का मन्दिर, वृन्दावन

भाषा को लेकर भी विभिन्न विद्वानों के भिन्न-भिन्न मत हैं। मारवाड़ी भाषा में स्थान की अन्य भाषा-छवियाँ भी विद्यामान हैं। फिर मीराबाई की भाषा में गुजराती, ब्रज और पंजाबी भाषा के प्रयोग भी मिलते भी हैं। मीराबाई अन्य संतों नामदेव, कबीर, रैदास आदि की भाँति मिली-जुली भाषा में अपने भावों को व्यक्त करती हैं। उनके पदों की संख्या भी अभी तक सुनिश्चित नहीं की जा सकी है। खोज एवं शोध अभी तक जारी है। कुछ समय पूर्व 'लूर' का मीराँ विशेषांक प्रकाशित हुआ था। इसमें मीराबाई द्वारा गाए गए 41 पद दिए गए हैं। इन्हें 'हरजस' नाम दिया गया है, जिन्हें लोक द्वारा विभिन्न अवसरों पर गाया जाता है। कुछ शब्दों के अर्थ भी स्पष्ट किए गए हैं। अतः कहना होगा कि इस दिशा में शोध कार्य अभी जारी है। कोई सर्वमान्य, स्वीकार्य निर्णय अभी शेष है।[5]

मीराबाई द्वारा प्रयुक्त सांगितिक पद्धति

संगीत की दृष्टि से मीराबाई मध्य काल में प्रचलित संगीत की राग-रागिनी पद्धति से भली प्रकार से परिचत थीं तथा वाणी का उच्चारण रागों में करना इसका सबसे बड़ा प्रमाण है, जो कि वर्तमान में शोध का विषय बन कर सामने आया है। गुरु प्यारी साध संगत जी, ऐसा सर्वविदित है कि समस्त जगत नाद के अधीन है तथा संगीत नाद का सबसे बड़ा रूप है, जिसे मीराबाई ने 45 रागों के रूप में अपनाते हुए अपनी वाणी को रागों में बद्धित किया और ईश्वर की प्राप्ति में दोनों नादों का प्रयोग किया। नाद दो प्रकार के माने गए हैं-

  1. अनाहत नाद - इसे संतो ने 'अनहत सबद बजावणया' की संज्ञा दी। यह योगियों द्वारा ध्यान से मन मस्तिष्क में सुनी जाती है, जिसे मध्य काल के संतों ने खोजा है।
  2. आहत नाद - यह नाद आघात द्वारा पैदा होती है। संगीत इसी का एक रूप है। इसीलिए मीराबाई ने नाम शब्दों से ध्यान लगाया तथा अपनी वाणी को संगीत (रागों) के रूप में उच्चारित किया।

संगीत को ऐतिहासिक दृष्टि से देखा जाए तो यह मोहनजोदड़ो, हड़प्पा संस्कृति तथा देवी-देवताओं के काल से चला आ रहा अध्यात्म और मनोरंजन का आलौकिक साधन है, जिसे अति प्राचीन काल और प्राचीन काल से लेकर जन-साधारण और विद्वानों द्वारा प्रर्युक्त कई विधाओं को जन्म मिला तथा आते-आते मध्य काल में यह राग-रागिनी पद्धति बनकर सामने आया, जोकि तत्कालीन समय के प्रत्येक संगीत विद्वान द्वारा अपनाई गई पद्धति थी। इसी प्रकार मध्य काल के संत-महात्माओं ने भी गायन के लिए इसी पद्धति का प्रयोग कर अपनी वाणी रचनाओं को उद्धृत किया। यह पद्धति मुख्यतः सांगीतिक ग्रन्थों में शिव-मत, भरत, कल्लिनाथ, हनुमत, नारद मुनि, पुण्डरीक विठ्ठल आदि द्वारा अपनाई गई थी। अतः संगीत को अपनाना मीराबाई की संगीत जगत के लिए सराहनीय योगदान है। इस काल में कई महान संत, जैसे- संत रविदास, संत कबीर, संत सदना, संत सैन, संत नामदेव, संत धन्ना, संत बैणी, संत भीखा, संत पीपा, संत त्रिलोचन तथा संत जयदेव आदि हुए, जो कि अधिकतर निम्न संप्रदाय से संबंध रखने वाले थे। इन सभी संतों ने सामाजिक कुरीतियों का खण्डन कर भेदभावों का भी विरोध किया जो कि समाज को दीमक के समान खोखला करने पर तुले हुए थे। इन सभी संतों ने अपनी वाणी को रागों में उच्चारा है। मीराबाई की वाणी लगभग 45 रागों में उपलब्ध होती है-

आध्यात्म स्तम्भ

संत कवयित्री मीराबाई ने अपने हृदय-मन्दिर में इष्ट श्रीकृष्ण की मूरत स्थापित कर बचपन से ही उनकी पूजा-अराधना और अर्चना आरंभ कर दी थी। यहीं से उनके भाव-विह्वल भक्ति के गीत फूटे और बहे, जिसमें युग-युग की मानवता अपनी आत्मिक प्यास बुझाती रही है। कृष्ण के प्रति प्रेम-भक्ति उनके नारी-सुलभ स्वभाव एवं वृत्तियों के अति अनुकूल भी थी और दैव-योग से मीरा इसी दिशा में प्रवृत्त होती गईं। भौतिक जीवन और घटनाक्रमों ने इस वेग को और भी बढ़ाया तथा दिशा को साधा। वह पारिवारिक संबन्धों से मुक्त होकर उन्मुक्त हुई महाभाव-हिलोरों पर उनमत्त हो झूलती रहीं। मीराबाई ने स्वयं मुक्त होकर अपने समय और युग की नारी को भी और देश-समाज के मानव एवं मानवता को भी मुक्त किया। मध्य युग में ही आधुनिक मानव की मुक्ति का बिगुल बजाने वाली स्त्री संत, आधुनिकता के नारी-विमर्श का बीज-वपन करने वाली मीराबाई अपने जीवन में तथा मृत्यु में भी मुक्त रहीं। वास्तव में मीरा वर्तमान भौतिक अंधकार के विरुद्ध भारतीय महाभाव-प्रेम एवं अध्यात्म का दीप स्तंभ हैं। भौतिक वैश्वीकरण एवं बाजारीकरण के विपरीत मानव की मुक्ति, समानता, गरिमा के आग्रहों को भावनात्मक सार्वभौमिकता देने वाली मीराबाई आध्यात्मिक वैश्वीकरण एवं विश्वमानवता का अलख जगाने वाली महान मानवी है।

मृत्यु

मीराबाई अपने युग से लेकर आज तक लोकप्रियता के शिखर पर आरूढ हैं। उनके गीत या भजन आज भी हिन्दी-अहिन्दी भाषी भारतवासियों के होठों पर विराजमान हैं। मीरा के कई पद हिन्दी फ़िल्मी गीतों का हिस्सा भी बने। वे बहुत दिनों तक वृन्दावन (मथुरा, उत्तर प्रदेश) में रहीं और फिर द्वारिका चली गईं। जहाँ संवत 1560 ई. में वे भगवान श्रीकृष्ण कि मूर्ति मे समा गईं। जब उदयसिंह राजा बने तो उन्हें यह जानकर बहुत निराशा हुई कि उनके परिवार मे एक महान भक्त के साथ कैसा दुर्व्यवहार हुआ। तब उन्होंने अपने राज्य के कुछ ब्राह्मणों को मीराबाई को वापस लाने के लिए द्वारका भेजा। जब मीराबाई आने को राजी नहीं हुईं तो ब्राह्मण जिद करने लगे कि वे भी वापस नहीं जायेंगे। उस समय द्वारका मे 'कृष्ण जन्माष्टमी' आयोजन की तैयारी चल रही थी। मीराबाई ने कहा कि वे आयोजन मे भाग लेकर चलेंगी। उस दिन उत्सव चल रहा था। भक्त गण भजन मे मग्न थे। मीरा नाचते-नाचते श्री रनछोड़राय जी के मन्दिर के गर्भग्रह में प्रवेश कर गईं और मन्दिर के कपाट बन्द हो गये। जब द्वार खोले गये तो देखा कि मीरा वहाँ नहीं थी। उनका चीर मूर्ति के चारों ओर लिपट गया था और मूर्ति अत्यन्त प्रकाशित हो रही थी। मीरा मूर्ति में ही समा गयी थीं। मीराबाई का शरीर भी कहीं नहीं मिला। उनका उनके प्रियतम प्यारे से मिलन हो गया था।[2]

जिन चरन धरथो गोबरधन गरब- मधवा- हरन।।
दास मीरा लाल गिरधर आजम तारन तरन।।

'मीरा' फ़िल्म का निर्माण

भारत के प्रसिद्ध गीतकार गुलज़ार ने मीराबाई के जीवन पर आधारित एक हिन्दी फ़िल्म का भी निर्माण किया। गुलज़ार निर्मित और अपने समय की मशहूर अभिनेत्री हेमा मालिनी द्वारा अभिनीत इस फ़िल्म में संगीत पण्डित रविशंकर ने दिया था। विख्यात सितार वादक के रूप में पहचाने जाने वाले पण्डित रविशंकर ने कुछ गिनी-चुनी फ़िल्मों में ही संगीत दिया है, परन्तु जो दिया है, वह अविस्मरणीय है। पण्डित जी फ़िल्म में पार्श्वगायिका लता मंगेशकर से मीरा के पदों को गवाना चाहते थे, परन्तु लता जी ने अपने भाई हृदयनाथ मंगेशकर के संगीत में मीरा के अधिकतर पदों को लोकप्रिय बना दिया था, अतः रविशंकर जी ने फ़िल्म में वाणी जयराम से मीरा के पदों का गायन कराया। फ़िल्म के सभी गीत विविध रागों पर आधारित थे।[6]


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वीथिका

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 मीराबाई की वाणी में संगीत (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 16 मार्च, 2013।
  2. 2.0 2.1 2.2 हिन्दी की महान कवियित्री मीराबाई (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 16 मार्च, 2013।
  3. पिछले जन्म में भी मीरा करती थीं कृष्ण से प्रेम (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 15 मार्च, 2013।
  4. मीराबाई (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 15 मार्च, 2013।
  5. पदावली (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 15 मार्च, 2013।
  6. वाणी जयराम बनी मीरा की आवाज़ (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 15 मार्च, 2013।

बाहरी कड़ियाँ

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