ककड़ी - संज्ञा स्त्रीलिंग (संस्कृत कर्कटी, पाली कक्कटी)[1]
1. जमीन पर फैलने वाली एक बेल जिसमें लंबे लंबे फल लगते हैं।
विशेष- यह फागुन चैत में बोई जाती है और बैसाख जेठ में फलती है। फल लंबा और पतला होता है। इसका फल कच्चा तो बहुत खाया जाता है, पर तरकारी के काम में भी आता है। लखनऊ की ककड़ियाँ बहुत नरम, पतली और मीठी होती हैं।
2. ज्वार या मक्का के खेत में फैलने वाली एक बेल जिसमें लंबे लंबे और बड़े फल लगते हैं।
विशेष- ये फल भादों में पककर आपसे आप फूट जाते हैं, इसी से 'फूट' कहलाते हैं। ये खरबूजे ही की तरह होते हैं, पर स्वाद में फीके होते हैं। मीठा मिलाने से इनका स्वाद बन जाता है।
मुहावरा-
'ककड़ी के चोर को कटारी से मारना' = छोटे अपराध या दोष पर कड़ा दंड देना। निष्ठुरता करना।
'ककड़ी खीरा करना' = तुच्छ समझना। तुच्छ बनाना। कुछ कदर न करना। जैसे- तुमने हमारे माल को ककड़ी खीरा कर दिया है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ हिंदी शब्दसागर, द्वितीय भाग |लेखक: श्यामसुंदरदास बी. ए. |प्रकाशक: नागरी मुद्रण, वाराणसी |पृष्ठ संख्या: 733 |
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