कँगनी

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कँगनी - संज्ञा स्त्रीलिंग (हिन्दी कँगना)[1]

1. छोटा कँगना। आभूषण विशेष। लाह की मोटी लाल या पीली चूड़ी।

2. छत या छाजन के नीचे दीवार में रीढ़ सी उमड़ी हुई लकीर जो खूबसूरती के लिये बनाई जाती है। कगर। कार्निस।

3. कपड़े का वह छल्ला जो नैवाबंद नैवे की मुहनाल के पास लगाते हैं।

4. गोल चक्कर जिसके बाहरी किनारे पर दाँत या नुकीले कंगूरे हों। दानेदार चक्कर।

5. ऐसे चक्कर पर गोल उभड़े हुए दाने।

कँगनी - संज्ञा स्त्रीलिंग (संस्कृत कङ्ग]

एक अन्न का नाम।

विशेष- यह समस्त भारतवर्ष, बर्मा, चीन, मध्य एशिया और यूरोप में उत्पन्न होता है। यह मैदानों तथा 6000 फुट तक की ऊंचाई पर पहाड़ों में भी होता है। इसके लिये दोमट अर्थात् हल्की सूखी जमीन बहुत उपयोगी है। आकृति, वर्ण और काल के भेद से इसकी कई जातियाँ होती हैं। रंग के भेद से कँगनी दो प्रकार की होती है- एक पीली और दूसरी लाल। यह असाढ़, सावन में बोई और भादों क्वार में काटी जाती है। इसकी एक जाति चेना या चीना भी है जो चैत्र बैसाख में बोई और जेठ में काटी जाती है। इसमें 12-13 बार पानी देना पड़ता है; इसीलिये लोग कहते हैं- बारह पानी चेन, नाहीं तो लेन का देन'। कंगनी के दाने सावाँ से कुछ छोटे और अधिक गोल होते हैं। यह दाना चिड़ियों को बहुत खिलाया जाता है। पर किसान इसके चावल को पकाकर खाते हैं। कंगनी के पुराने चावल रोगी को पथ्य की तरह दिए जाते हैं।

पर्यायवाची- काकन। ककुनी। प्रियंगु। कंगु। टाँगुन। टँगुनी।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. हिंदी शब्दसागर, द्वितीय भाग |लेखक: श्यामसुंदरदास बी. ए. |प्रकाशक: नागरी मुद्रण, वाराणसी |पृष्ठ संख्या: 729 |

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