कच्चा

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कच्चा - विशेषण (संस्कृत कषण=कच्चा)[1]

1. बिना पका। जो पका न हो। हरा और बिना रस का। अपक्व। जैसे- कच्चा फल

मुहावरा- कच्चा खा जाना =। मार डालना। नष्ट करना। (क्रोध में लोगों की यह साधारण बोलचाल है।) जैसे- तुमसे जो कोई बोलेगा, उसे मैं कच्चा खा जाऊँगा। उदाहरण- क्या महमूद के अत्याचारों का वर्णन पढ़कर जी में यह नहीं आता कि वह सामने आता तो उसे कच्चा खा जाते। - रसमीमांसा[2]

2. जो आँच पर न पका हो। जो आँच खाकर गला न हो या खरा न हो गया हो। जैसे- कच्ची रोटी, कच्ची दाल, कच्चा घड़ा, कच्ची ईंट।

3. जो अपनी पूरी बाढ़ को न पहुंचा हो। जो पुष्ट न हुआ हो। अपरिपुष्ट। जैसे- कच्ची कली, कच्ची लकड़ी, कच्ची उमर।

मुहावरा- कच्चा जाना = गर्भपात होना। पेट गिरना। कच्चा बच्चा = वह बच्चा जो गर्भ के दिन पूरे होने के पहले ही पैदा हुआ हो।

4. जो बनकर तैयार न हुआ हो। जिसके तैयार होने में कसर हो।

5. जिसके संस्कार या संशोधन की प्रक्रिया पूरी न हुई हो। जैसे- कच्ची चीनी, कच्चा शोरा।

6. अदृढ़। कमजोर। जल्दी टूटने या बिगड़ने वाला। बहुत दिनों तक न रहने वाला। अस्थायी। अस्थिर। जैसे- कच्चा धागा, कच्चा काम, कच्चा रंग। उदाहरण- (क) कच्चे बारह बार फिरासी पक्के तो फिर थिर न रहासी। - जायसी ग्रंथावली[3] (ख) ऐसे कच्चे नहीं कि हम पर किसी का दाँवपेच चले। - फिसाना ए आज़ाद[4]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. हिंदी शब्दसागर, द्वितीय भाग |लेखक: श्यामसुंदरदास बी. ए. |प्रकाशक: नागरी मुद्रण, वाराणसी |पृष्ठ संख्या: 739 |
  2. रसमीमांसा, पृष्ठ 101, सम्पादक विश्वनाथप्रसाद मिश्र, नागरी प्रचारिणी सभा, काशी, द्वितीय संस्करण
  3. जायसी ग्रंथावली, पृष्ठ 332, सम्पादक रामचंद्र शुक्ल, नागरी प्रचारिणी सभा, द्वितीय संस्करण
  4. फिसाना ए आज़ाद, पृष्ठ 9, भाग 4, पण्डित रतननाथ 'सरशार', नवल किशोर प्रेस, लखनऊ, चतुर्थ संस्करण

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